१४० मानसरोवर सुनाता। उसे चोरी और डाके, मार-पीट, भूत-प्रेत की सैकड़ों कहानियां याद थीं। -मैं ये कहानियां सुनकर विस्मय-पूर्ण आनन्द में मग्न हो जाता। उसकी कहानियों के चोर और डाकू सच्चे योद्धा होते थे, जो अमीरों को लूटकर दोन-दुखी प्राणियों का 'पालन करते थे । मुझे उन पर घृणा के वदले श्रद्धा होती थी। ( २ ) एक दिन कजाकी को डाक का थैला लेकर आने में देर हो गई। सूर्यास्त हो गया और वह दिखलाई न दिया। मैं खोया हुआ-सा सडक पर दूर तक आँखे फाड़ फाडकर देखता था; पर वह परिचित रेखा न दिखलाई पडतो थी। कान लगाकर “सुनता था ; पर 'झुन-झुन' की वह आमोदमय ध्वनि न सुनाई देती थी। प्रकाश के साथ मेरी आशा भी मलिन होती जाती थी। उधर से किसी को आते देखता, तो पूछता-कजाकी आता है ! पर या तो कोई सुनता ही न था, या केवल सिर हिला $ 1 देता था। सहसा 'झुन-झुन' की आवाज़ कानों में आई। मुझे अँधेरे में चारों ओर भूत ही दिखलाई देते थे, यहाँ तक कि माताजी के कमरे में ताक पर रखी हुई मिठाई भी, अंधेरा हो जाने के बाद, मेरे लिए त्याज्य हो जाती थी, लेकिन वह आवाज़ सुनते ही मैं उसकी तरफ जोर से दौड़ा । हाँ, वह कजाकी ही था । उसे देखते ही मेरी विक- लता क्रोध में बदल गई । मैं उसे मारने लगा, फिर मान करके अलग खड़ा हो गया। कजाकी ने हँसकर कहा-मारोगे, तो मैं एक चीज लाया हूँ, वह न दूंगा। मैंने साहस करके कहा जाओ, मत देना, मैं लूँगा ही नहीं । कजाकी-अभी दिखा दूं, तो दौड़कर गोद में उठा लोगे। -अच्छा, दिखा दो। कजाकी-तो आकर मेरे कन्धे पर बैठ जाओ, भाग चलूँ ।, आज बहुत देर हो गई। बाबूजी बिगड़ रहे होंगे। मैंने अकड़कर कहा–पहिले दिखा । मेरी विजय हुई। अगर कजाकी को देर का डर न होता और वह एक मिनट भी और रुक सकता, तो शायद पासा पलट जाता। उसने कोई चीज दिखलाई, जिसे . • वह एक हाथ से छाती से चिपटाये हुए था ; लम्बा मुँह था, और दो आँखें चमक रही थीं। मैंने पिघलकर कहा-
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