लांछन १३५ कहीं एक घर दिला दो। घर ऐसा हो कि वाबू साहव को मेरा पता न मिले। नहीं, वह मुझे जीता न छोड़ेंगें। रजा ने मुन्नू की ओर देखा, मानो कह रहा है-देखा, चाल कैसी ठीक थी । देवी से बोला-आप निशाखातिर रहें, ऐसा घर दिला दूंगा कि वावू साहब के बाबा साहब को भी पता न चले । आपको किसी बात की तकलीफ न होगी । हम आपके पसीने की जगह खून बहा देंगे। सच पूछो तो वहुजी, बाबू साहब आपके लायक थे ही नहीं। मुन्नू-कहाँ की बात भैया, आप रानी होने लायक हैं । मैं मालकिन से कहता था कि बाबूजी को दालमण्डी की हवा लग गई है , पर आप मानती ही न थीं । आज ही रात को मैंने उन्हें गुलावजान के कोठे पर से उतरते देखा । नसे में चूर थे । देवी- झूठी बात। उनकी यह आदत नहीं । गुस्सा उन्हें जरूर बहुत है, और गुस्से मे आकर उन्हें नेक-वद कुछ नहीं सूझता , लेकिन निगाह के बुरे नहीं। मुन्नू-हजूर मानती ही नहीं, तो क्या करूँ । अच्छा कभी दिखा दूंगा, तब तो मानियेगा। रजा-अबे दिखाना पीछे, इस वक्त आपको मेरे घर पहुंचा दे। ऊपर ले जाना । एक मकान देखने जाता हूँ। आपके लायक बहुत ही अच्छा है। देवी-तुम्हारे घर में बहुत-सी औरते होंगी ? रज़ा- कोई नहीं है, वहूजी, सिर्फ एक बुढिया मामा है, वह आपके लिए एक कहारिन बुला देगी। आपको किसी बात की तकलीफ न होगी । मैं मकान देखने जा रहा हूँ। देवी-ज़रा बाबू साहब की तरफ भी होते आना । देखना घर आये कि नहीं ? रज़ा-बावू साहव से तो मुझे चिढ़ हो गई है। शायद नजर आ जाय तो मेरी उनसे लड़ाई हो जाय । जो मर्द आप-जैसी हुस्न की देवी की कदर नहीं कर सकता, वह आदमी नहीं। मुन्नू-बहुत ठीक कहते हो, भैया । ऐसी सरीपजादी को न जाने किस मुंह से डांटते हैं ! मुझे इतने दिन हजूर की गुलामी करते हो गये, कभी एक बात न कही। रजा मकान देखने गया, और तांगा रज़ा के घर की तरफ़ चला। देवो के मन में इस समय एक शङ्का का आभास हुआ-कहीं ये दोनो सचमुच जब तक
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