लाछन १३३ इज्जत नहीं, मर्यादा नहीं, प्रेम नहीं, विश्वास नहीं, वहाँ रहना बेहयाई है। कुछ मैं इनके हाथ विक तो गई ही नहीं कि यह जो चाहें करें, मारे या काटें, पड़ी सहा करूँ। सीता-जैसी पत्नियाँ होती थीं, तो राम-जैसे पति भी होते थे ! देवी को अब ऐसी शका होने लगी, कि कहीं श्यामकिशोर आते-ही-आते सच- मुच उसका गला न दवा दें, या छुरी न भोंक दे। वह समाचार-पत्रों में ऐसी कई हरजाइयों की खबरें पढ़ चुकी थी। शहर ही में ऐसी कई घटनाएं हो चुकी थीं। मारे भय के वह थरथरा उठी । यहाँ रहने से प्राणों की कुशल न थी। देवी ने कपड़ों की एक छोट-सी बुकची बाँधी, और सोचने लगी-यहाँ से कैसे निकलूँ ? और फिर यहाँ से निकलकर जाऊँ कहाँ ! कहीं इस वक्त मुन्नू का पता लग जाता तो बड़ा काम निकलता । वह मुझे क्या मैके न पहुँचा देता। एक बार मैके पहुँच- भर जाती। फिर तो लाला सिर पटककर रह जायें, भूलकर भी न आऊँ। यह भी क्या याद करें । रुपए क्यों छोड़ दूं, जिसमें यह मजे से गुलछर्रे उड़ाये ? मैंने ही तो काट- कपटकर जमा किये हैं। इनकी कौन-सी ऐसी बड़ी कमाई थी। खर्च करना चाहती तो मौड़ी न बचती । पैसा-पैसा बचाती रहती थी। देवी ने जाकर नीचे के किवाड़े बन्द कर दिये। फिर सन्दूक खोलकर अपने सारे जेवर और रुपए निकालकर वुकची में बाँध लिये । सब-के-सब करेंसी नोट थे ; विशेष बोझ भी न हुआ। एकाएक किमी ने सदर दरवाजे में ज़ोर से धक्का मारा। देवी सहम उठी। ऊपर से झाँककर देखा, श्याम वावू थे । उसकी हिम्मत न पड़ी कि जाकर द्वार खोल टे। फिर तो बाबू साहव ने इतनी ज़ोर से धक्के मारने शुरू किये, मानो किवाड़ ही तोड़ डालेंगे। इस तरह द्वार खुलवाना ही उनकी चित्त की दशा को साफ प्रकट कर रहा था। देवी शेर के मुँह में जाने का साहस न कर सकी । आखिर श्यामकिशोर ने चिल्लाकर कहा-ओ डैम ! किवाड़ खोल, ओ ब्लडो। किवाड़ खोल ! अभी खोल ! देवी की रही-सही हिम्मत भी जाती रही। श्यामकिशोर नशे में चूर थे। होश में शायद दया आ जाती, इसलिए शराब पीकर आये हैं। किवाड़ तो न खोलूंगी चाहे तोड़ ही डालो । अब तुम मुझे इस घर में पाओगे ही नहीं, मारोगे कहाँ से ? तुम्हें खूब पहचान गई।
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