लाउन १२५ स्माम.- देवी-जो कुछ आया होगा, इसी घर ही मे तो होगा। देख क्यो नहीं लेते ? इतना बड़ा घर भी तो नहीं है कि दो-चार दिन देखते लग जाय ! मुझे इतनी फुरसत नहीं है। खैरियत इसी में है कि जो चीजें आई हों, लाकर मेरे सामने रख दो। यह तो हो ही नहीं सकता कि लड़की के लिए खिलौने आयें और तुम्हारे लिए कोई सौगात न आये। तुम भरी गंगा मे कसम खाओ, तो भी मुझे विश्वास न आयेगा। देवी-तो घर में देख क्यो नहीं लेते ? श्यामकिशोर ने चूसा तानकर कहा - कह दिया, मुझे फुरसत नहीं है। सीधे से सारी चीज़ लाकर रख दो , नहीं तो इसी दम गला दवाकर मार डालूँगा। देवी- मारना हो, तो मार डालो , जो चीजे आई ही नहीं, उन्हे मैं दिखा कहाँ से हूँ। श्यामकिशोर ने क्रोध से उन्मत्त होकर देवी को इतनी जोर से धक्का दिया कि वह चारो खाने चित्त ज़मीन पर गिर पड़ी। तव उसके गले पर हाथ रखकर बोले-- दवा , गला ! न दिखलायेगी तू उन चीजों को 2 देवी--जो अरमान हों, पूरे कर लो। श्याम० --खून पी जाऊँगा ! तूने समझा क्या है । देवी 1--अगर दिल की प्यास बुझती हो, तो पी जाओ। -फिर तो उस मेहतर से बातें न करेगो ! अगर अब कभी मुन्नू या उस शोहदे रज़ा को इस द्वार पर देखा, तो गला काट लूँगा। यह कहकर बाबूजी ने देवी को छोड़ दिया, और बाहर चले गये लेकिन देवी उसी दशा में बढ़ी देर तक पड़ी रही । उसके मन में इस समय पति-प्रेम, और मर्याद- रक्षा का लेश भी न था। उसका त करण प्रतीकार के लिए विकल हो रहा था। इम वक्त अगर वह सुनती कि श्यामकिशोर को किसी ने बाज़ार मे जूतों से पीटा, तो कदाचित् वह खुश होती। कई दिनों तक पानी से भीगने के बाद, आज यह मौका पाकर प्रेम की दीवार भूमि पर गिर पड़ो, और मन की रक्षा करनेवाली कोई साधना न रही। अब केवल सकोच और लोक-लाज की हलकी-सी रस्सी रह गई है, जो एक झटके में टूट सकती है। श्याम०--
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