१०८ मानसरोवर । डोह का सुमिरन किया, क्योंकि अपने हलके में डीह हो की इच्छा सर्वप्रधान होती है। यह सब कुछ किया, लेकिन ज्यों-ज्यों घर निकट आता, दिल की धड़कन बढ़ती जाती थी। घटाएँ उमड़ी आती थीं। मालूम होता था-आसमान फटकर गिरा ही चाहता है। देखता था-लोग अपने-अपने काम छोड़-छोड़ भागे जा रहे हैं, गोरू भी पूँछ उठाये घर की ओर उछलते-कूदते चले जाते थे। चिड़ियां अपने घोसलों की ओर उड़ी चली आती थीं , लेकिन मैं उसी मन्द गति से चला जाता था, मानो पैरो मे शक्ति ही नहीं । जी चाहता था-जोर का बुखार चढ आये, या कहीं चोट लग जाय ; लेकिन कहने से धोबी गधे पर नहीं चढता। बुलाने से मौत भी नहीं आती, वीमारी का तो कहना ही क्या ! कुछ न हुआ, और धोरे-धीरे चलने पर भी घर सामने आ ही गया । अब क्या हो ? हमारे द्वार पर इमली का एक घना वृक्ष था। मैं उसी की आड़ में छिप गया कि जरा और अंधेरा हो जाय, तो चुपके-से घुस जाऊँ, और अम्माँ के कमरे में चारपाई के नीचे जा बैहूँ। जब सब लोग सो जायेंगे, तो अम्माँ से सारी कथा कह सुनाऊँगा। अम्माँ कभी नहीं मारतीं। ज़रा उनके सामने झूठ-मूठ रोऊँगा, तो वह और भी पिघल जायेंगी। रात कट जाने पर फिर कौन पूछता है । सुवह तक सबका गुस्सा ठण्डा हो जायगा। अगर चे मसूबे पूरे हो जाते, तो इसमें सन्देह नहीं , मैं बेदारा बच जाता। लेकिन वहाँ तो विधाता को कुछ ओर ही मजूर था। मुझे एक लड़के ने देख लिया, और मेरे नाम की रट लगाते हुए सीधे मेरे घर में भागा । अब मेरे लिए कोई आशा न रही । लाचार घर में दाखिल हुआ, तो सहसा मुंह से एक चीख निकल गई, जैसे मार खाया हुआ कुत्ता किसी को अपनी ओर आता देखकर भय से चिल्लाने लगता है। बरोठे में पिताजी बैठे थे। पिताजी का स्वास्थ्य इन दिनों कुछ खराब हो गया था। छुट्टो लेकर घर आये हुए थे। यह तो नहीं कह सकता कि उन्हें शिकायत क्या थी , पर वह मूंग की दाल खाते थे, और सन्ध्या समय गीशे के गिलास में एक बोतल में से कुछ उड़ेल-उड़ेलकर पीते थे। शायद यह किसी तजुरबेकार हकीम की वताई हुई दवा थी। दवाएँ सब बासनेवाली और कड़वी होती हैं। यह दवा भी बुरी ही थी , पर पिताजी न जाने क्यों इस दवा को खूब मज़ा ले-लेकर पीते थे। हम जो दवा पीते हैं ; तो आँखें वन्द करके एक ही चूट में गटक जाते हैं , पर शायद इस दवा का असर धीरे-धीरे पीने में ही होता हो । पिताजी के पास गाँव के दो-तीन और कभी-कभी चार-पांच और रोगी भी
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