बहिष्कार १०१ ज्ञान- चुके। सारा गाँव उनकी तरफ हो जायगा। मैं तो अब गाँव-भर का द्रोही हूँ न । आज खूब डटकर भोजन किया। अब मैं भी रईस हूँ, बिना हाथ-पैर हिलाये गुलछरें उड़ाता हूँ। सच कहता हूँ, तुम्हारी ओर से अव मैं निश्चिन्त हो गया। देश-विदेश भी चला जाऊँ, तो तुम अपना निबाह कर सकती हो । गोविन्दी--कहीं जाने का काम नहीं है। -तो यहाँ जाता ही कौन है। किसे कुत्ते ने काटा है, जो यह सेवा छोड़कर मेहनत-मजूरी करने जाय । तुम सचमुच देवी हो, गोविन्दी ! भोजन करके ज्ञानचन्द्र वाहर निकले । गोविन्दी भोजन करके कोठरी में आई, तो ज्ञानचन्द्र न थे। समझी-कहीं बाहर चले गये होंगे। आज पति की बातों से उसका चित्त कुछ प्रसन्न था। शायद अव वह नौकरी-चाकरी की खोज में कहीं जाने- चाले हैं। यह आशा वव रही थी। हाँ, उनकी व्यझोक्तियों का भाव उसकी समझ ही में न आता था। ऐसी बातें वह कभी न करते थे। आज क्या सूझी ! कुछ कपड़े सीने थे। जाड़ों के दिन थे । गोविन्दी धूप में बैठकर सीने लगी। थोड़ी ही देर में शाम हो गई। अभी तक ज्ञानचन्द्र नहीं आये । तेल-बत्ती का समय आया, फिर भोजन की तैयारी करने लगी। कालिन्दी थोड़ा-सा दूध दे गई थी। गोविन्दी को तो भूख न थी, अब वह एक ही वेला खाती थी। हां, ज्ञानचन्द्र के लिए रोटियाँ सेंकनी थीं । सोचा -दूध है ही, दूध-रोटी खा लेंगे। भोजन बनाकर निकली ही थी कि सोमदत्त ने आंगन में आकर पूछा-कहाँ है जानू ? गोविन्दी कहीं गये हैं। सोम० -कपड़े पहनकर गये हैं ? गोविन्दी - हाँ, कालो मिर्जई पहने थे । सोम० -- जूता भी पहने थे ? गोविन्दी की छाती धड़धड़ करने लगी। वोली-हाँ, जूता तो पहने थे। क्यों पूछते हो ? सोमदत्त ने ज़ोर से हाथ मारकर कहा-हाय ज्ञानू ! हाय ! गोविन्दी घबराकर बोली-क्या हुआ दादाजी ? हाय ! बताते क्यों नहीं ? हाय !
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