बहिष्कार ९९ वह गर्व, वह आत्म-वल, वह तेज, जो परम्परा ने उनके हृदय में कूट-कूटकर भर दिया था, उसका कुछ अश तो पहले ही मिट चुका था, बचा-खुचा पुत्र-शोक ने मिटा दिया। उन्हें विश्वास हो गया कि उनके अविचार का ईश्वर ने यह दण्ड दिया है। दुरवस्था, जोर्णता और मानसिक दुर्बलता सभी इस विश्वास को दृढ करती थीं। वह गोविन्दी को अब भी निर्दोष समझते थे। उसके प्रति एक भी कटु शब्द उनके मुंह से न निकलता था, न कोई कटु भाव उनके दिल में जगह पाता था। विधि की क्रूर-क्रीड़ा ही उनका सर्वनाश कर रही है , इसमें उन्हें लेशमात्र भी सन्देह न था। अब यह घर उन्हें फाड़े खाता था। घर के प्राण-से निकल गये थे। अब माता किसे गोद में लेकर चाँद मामा को बुलायेगी, किसे उबटन मलेगी, किसके लिए प्रात काल हवा पकायेगी। अब सब कुछ शुन्य था, मालूम होता था कि उनके हृदय निकाल लिये गये हैं । अपमान, कट, अनाहार, इन सारी विडम्वनाओं के होते हुए भी बालक की वाल-कोड़ाओं में वे सव-कुछ भूल जाते थे। उसके स्नेहमय लालन-पालन में ही अपना जीवन सार्थक समझते थे। अव चारों ओर अन्धकार था। यदि ऐसे मनुष्य हैं, जिन्हें विपत्ति से उत्तेजन और साहस मिलता है, तो ऐसे मनुष्य भी हैं, जो आपत्काल में कर्तव्यहीन, पुरुषार्थहीन और उद्यमहीन हो जाते हैं। ज्ञानचन्द्र गिक्षित थे, योग्य थे। यदि शहर में जाकर दौड़-धूप करते, तो उन्हें कहीं-न- कहीं काम मिल जाता । वेतन कम ही सही, रोटियों को तो मुहताज न रहते , किन्तु अविश्वास उन्हें घर से निकलने न देता था। कहाँ जाय, शहर में हमें कौन जानता है ? अगर दो-चार परिचित प्राणी हैं भी, तो उन्हें मेरी क्यों परवा होने लगी ? फिर इस दशा में जाय कैसे ? देह पर सावित कपड़ा भी नहीं । जाने के पहले गोविन्दी के लिए कुछ-न-कुछ प्रबन्ध करना आवश्यक था । उसका कोई सुभीता न था। इन्हीं चिन्ताओं में पड़े-पड़े उनके दिन कटते जाते थे। यहाँ तक कि उन्हें घर से बाहर निकलते भी बड़ा सकोच होता था। गोविन्दी ही पर अन्नोपार्जन का भार था। बेचारी दिन को घच्चों के कपड़े सीती, रात को दूसरों के लिए आटा पीसती। ज्ञान- चन्द्र सब कुछ देखते थे और माथा ठोककर रह जाते थे। एक दिन भोजन करते हुए ज्ञानचन्द्र ने आत्म-धिक्कार के भाव से मुसकुराकर कहा-मुझ-सा निर्लज्ज पुरुष भी संसार मे दूसरा न होगा, जिसे स्त्री की कमाई खाते भी मौत नहीं आती।
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