वहिष्कार ९७ - में शर के समान लगते थे। आज दिन-भर बच्चे ने कुछ न खाया था। घर में कुछ या ही नहीं। क्षुधामि से बालक छटपटा रहा था ; पर या तो वह रोना न चाहता था, या उसमें रोने की शक्ति ही न थी। इतने में ज्ञानचन्द्र तेली के यहाँ से तेल लेकर आ पहुँचे । दीपक जला। दीपक के क्षीण प्रकाश में माता ने वालक का मुख देखा, तो सहम उठी। बालक का मुख पीला पड़ गया था और पुतलियाँ ऊपर चढ़ गई थी। उसने घबराकर बालक को गोद में उठाया। देह ठण्डी थी । चिल्लाकर बोली-हा भगवान् ! मेरे बच्चे को क्या हो गया ! ज्ञानचन्द्र ने बालक के मुख की ओर देखकर एक ठण्डी साँस ली और बोले- ईश्वर, क्या सारी दया-दृष्टि हमारे ही ऊपर करोगे। गोविन्दी-हाय ! मेरा लाल मारे भूख के शिथिल हो गया है। कोई ऐसा नहीं, जो इसे दो छूट दूध पिला दे। यह कहकर उसने बालक को पति की गोद मे दे दिया और एक लुटिया लेकर कालिन्दी के घर दूध मांगने चली। जिस कालिन्दी ने आज छ महोने से इस घर की ओर झांका तक न था, उसी के द्वार पर दूध की भिक्षा मांगने जाते हुए उसे कितनी ग्लानि, कितना सकोच हो रहा था, वह भगवान् के सिवा और कौन जान सकता है। यह वही वालक है, जिस पर एक दिन कालिन्दी प्राण देती थी, पर उसकी ओर से अब उसने अपना हृदय इतना कठोर कर लिया था कि घर मे कई गौएँ लगने पर भी कभी एक चिल्लू दूध न भेजा था। उसी को दया-भिक्षा मांगने आज, अंधेरी रात में, भीगती हुई गोविन्दी दौड़ी जा रही है । माता ! तेरे वात्सल्य को धन्य है ! कालिन्दी दीपक लिये दालान में खड़ी गाय दुहा रही थी। पहले स्वामिनी वनने के लिए वह सौत से लड़ा करती थी। सेविका का पद उसे स्वीकार न था। अब सेविका का पद स्वीकार करके स्वामिनी बनी हुई थी। गोविन्दी को देखकर तुरन्त बाहर निकल आई और विस्मय से बोली - क्या है बहन, पानी-वू दी में कैसे चली आई ! गोविन्दी ने सकुचाते हुए कहा-लाला वहुत भूखा है, कालिन्दी। आज दिन- भर कुछ नहीं मिला । योड़ा-सा दूध लेने आई हूँ। कालिन्दी भीतर जाकर दूध का मटका लिये वाहर निकल आई और बोली जितना चाहो, ले लो गोविन्दी ! दूध की कौन कमी है। लाला तो अब चलता होगा ?
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