६ मानसरोवर अरी पगली, ठाकुरजी भक्तों के मन का भाव देखते हैं कि चरन पर गिरना देखते हैं। सुना नहीं है-'मन चङ्गा तो कठौती में गङ्गा'। मन में भक्ति न हो, तो लाख कोई भगवान् के चरनों पर गिरे, कुछ न होगा। मेरे पास एक जन्तर है। दाम तो उसका बहुत है; पर तुझे एक ही रुपये में दे दूंगा। उसे बच्चे के गले में बाँध देना । बस, कल वच्चा खेलने लगेगा। सुखिया-तो ठाकुरजी की पूजा न करने दोगे ? पुजारी-तेरे लिए इतनी ही पूजा बहुत है। जो वात कभी नहीं हुई, वह आज मैं कर दूं और गाँव पर कोई आफत-विपत पड़े तो क्या हो, इसे भी तो सोच ! तु यह जन्तर ले जा, भगवान् चाहेंगे, तो रात ही भर में बच्चे का क्लेश कट जायगा। किसी की डोठ पड़ गई है । है भी तो चोंचाल । मालूम होता है, छत्तरी वस है। सुखिया-जबसे इसे जर आया है, मेरे प्रान नहों में समाये हुए हैं। पुजारी-बड़ा होनहार बालक है । भगवान् जिला दें, तो तेरे सारे सङ्कट हर लेगा । यहाँ तो बहुत खेलने आया करता था । इधर दो-तीन दिन से नहीं देखा था। सुखिया-तो जन्तर को कैसे बांधूंगी, महाराज ? पुजारी-मैं कपड़े में बाँधकर देता हूँ। बस, गले में पहना देना । अब तू इस बेला नवीन बस्तर कहाँ खोजने जायगी। सुखिया ने दो रुपये पर कड़े गिरों रखे थे। एक पहले ही भँज चुका था। दूसरा पुजारीजी को भेंट किया और जन्तर लेकर मन को समझाती हुई घर लौट आई। ( ५ ) सुखिया ने घर पहुंचकर बालक के गले में यन्त्र बाँध दिया , पर ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी, उसका ज्वर भी बढता जाता था, यहाँ तक कि तीन बजते-बजते उसके हाथ-पाँव शीतल होने लगे। तब वह घबड़ा उठी और सोचने लगी-हाय ! मैं व्यर्थ ही सङ्कोच में पड़ी रही और विना ठाकुरजी के दर्शन किये चली आई। अगर मैं अन्दर चली जाती और भगवान् के चरणों पर गिर पड़तो, तो कोई मेरा क्या कर लेता? यही न होता, कि लोग मुझे धक्के देकर निकाल देते, शायद मारते भी ; पर मेरा मनोरथ तो पूरा हो जाता। यदि मैं ठाकुरजी के चरणों को अपने आँसुओं से भिगो देती और बच्चे को उनके चरणों मे सुला देती, तो क्या उन्हें दया न आती ?
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