अभिलाषा ९९ , खोली १ समझती होगी, मैं पत्र न लिखू गी, तो बचा खूब रोयेगे और हैरान होंगे। यहां इसकी परवा नहीं। नौ बजे रात को सोता हूँ, तो आठ बजे उठता हूँ। कोई चिंता है तो यही कि फेल न हो जाऊँ । अगर फेल हुआ, तो तुम जानोगी। कितना सरल, भोले-भाले हृदय से निकला हुआ, निष्कपट मानपूर्ण अाग्रह और अातंक से भरा हुआ पत्र था, मानो उनका सारा उत्तरदायित्व मेरे ही ऊपर था। ऐसी धमकी क्या अब भी वह मुझे दे सकते हैं ? कभी नहीं। ऐसी धसकी वही दे सकता जो न मिल सकने की व्यपा को जानता हो, उसका अनुभव करता हो । पतिदेव अब जानते हैं, इस धमकी का मुझ पर कोई असर न होगा, मैं हँसू गी और आराम से सोऊँगी, क्योकि मै जानती हूँ, वह अवश्य आयेगे और उनके लिए ठिकाना ही कहाँ है ? जा ही कहाँ सकते हैं ? तबसे उन्होंने मेरे पास कितने ही पत्र लिखे हैं। दो दिन को भी बाहर जाते हैं, तो ज़रूर एक पत्र भेजते हैं, और जब दस-पांच दिन को जाते हैं, तो नित्यप्रति एक पत्र आता है। पत्रों मे प्रेम के चुने हुए शब्द, चुने हुए वाक्य, चुने हुए सबोधन भरे होते हैं। मैं उन्हें पढ़ती हूँ और एक ठडी साँस लेकर रख देती हूँ। हाय ! वह हृदय कहाँ गया ? प्रेम के इन निर्जीव, भावशून्य कृत्रिम शब्दों मे वह अभिन्नता कहाँ है, वह रस कहाँ है वह उन्माद कहाँ है, वह क्रोध कहाँ है, वह झुंझलाहट कहाँ है ! उनमे मेरा मन कोई वस्तु खोजता है-कोई अज्ञात, अव्यक्त, अलक्षित वस्तु-पर वह नहीं मिलती । उनमें सुगध भरी होती है, पत्रो के कागज़ आर्टपेपर को मात करते हैं ; पर उनका यह सारा बनाव सॅवार किसी गतयौवना नायिका के बनाव-सिंगार के सदृश ही लगता है। कभी-कभी तो मै पत्रो को खोलती भी नहीं | मैं जानती हूँ, उनमे क्या लिखा होगा। उन्हीं दिनों की बात है, मैंने तीजे का व्रत किया था। मैंने देवी के समुख सिर झुकाकर वंदना की थी-देवि, मैं तुमसे केवल एक वरदान मांगती हूँ ! हम दोनो प्राणियों में कभी विच्छेद न हो और मुझे कोई अभि- लाषा नहीं, मैं ससार की और कोई वस्तु नहीं चाहती। तब से चार साल हो गये हैं, और हममें एक दिन के लिए भी विच्छेद नहीं हुआ। मैने तो केवल
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