पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/९७

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९८ मानसरोवर रूप देखती हूँ और गर्व से फूल उठती हूँ। अपनी हमजोलियों को दिखाकर अपना गौरव और उनकी ईर्ष्या बढ़ाती हूँ। बस ! अभी थोड़े ही दिन हुए हैं, उन्होंने मुझे यह चंद्रहार दिया है। जो इसे देखता है, मोहित हो जाता है । मैं भी उसकी बनावट और सजावट पर मुग्ध हूँ। मैंने अपना संदूक खोला और उस गुलदस्ते को निकाल लाई । श्राह ! उसे हाथ में लेते ही मेरी एक-एक नस मे बिजली दौड़ गई। हृदय के सारे तार कंपित हो गये। वह सूखी हुई 'पंखड़ियां जो अब पीले रंग की हो गई थीं, बोलती हुई मालूम होती थीं, उनके सूखे, मुरझाए हुए मुखों से अस्फुटित कपित, अनुराग मे डूबे शब्द सांय-साय करके निकलते हुए जान पड़ते थे, किंतु वह रत्न-जटित, काति से दमकता हुआ हार स्वर्ण और पत्थरों का एक समूह था, जिसमें प्राण न थे, संज्ञा न थी, मर्म न था। मैंने फिर गुलदस्ते को चूमा, कंठ से लगाया, आर्द्र नेत्रो से सींचा और फिर सदूक में रख आई ! आभूषणो से भरा हुआ संदूक उस एक स्मृति-चिह्न के सामने तुच्छ था । यह क्या रहस्य था! फिर मुझे उनके एक पुराने पत्र की याद आ गई। उसे उन्होंने कालेज से मेरे पास भेजा था। उसे पढ़कर मेरे हृदय मे जो श्रानद हुआ था, जो तूफान उठा था, आँखों से जो नदी बही थी, क्या उसे कभी भूल सकती हूँ उस पत्र को मैने अपनी सोहाग की पेटारी में रख दिया था। इस समय उस पत्र को पढ़ने की प्रबल इच्छा हुई। मैने पिटारी से वह पत्र निकाला। उसे स्पर्श करते ही मेरे हाथ कांपने लगे, हृदय मे धड़कन होने लगी। मै कितनी देर उसे हाथ मे लिये खड़ी रही, कह नहीं सकती। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मैं फिर वही हो गई हूँ, जो पत्र पाते समय थी। उस पत्र में क्या प्रेम के कविचमय उद्गार थे ? क्या प्रेम की साहित्यिक विवेचना थी ? क्या वियोग- व्यथा का करुण नंदन था ? उसमें तो प्रेम का एक शब्द भी न था। लिखा था-कामिनी, तुमने आठ दिनों से कोई पत्र नहीं लिखा । क्यों नहीं लिखा ? अगर तुम मुझे पत्र न लिखोगी, तो मै होली की छुट्टियो में घर न पाऊँगा, इतना समझ लो । आखिर तुम सारे दिन क्या किया करती हो ? मेरे उपन्यासों की श्रालमारी खोल ली है क्या ? आपने मेरी श्रालमारी क्यों -