पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/९४

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दारोगाजी ९३ दराज़ों से कुछ, रोशनी आ रही थी ! ऊपर जो निगाह उठाई, तो एक मचान- सा दिखाई दिया। डूबते को तिनके का सहारा मिल गया । उचककर चाहता था कि ऊपर चढ़ जाऊँ कि मचानपर एक आदमी को बैठे देखकर उस हालत मे मेरे मुह से चीख निकल गई । यह हज़रत अचकन पहने, घड़ी लगाये, एक खूबसूरत साफा बाँधे, उकडू बैठे हुए थे। अब मुझे मालूम हुआ कि मेरे लिए दरवाजा खोलने मे हसीना ने इतनी देर क्यों की थी। अभी इनको देख ही रहा था कि दरवाजे पर मूसल की चोटे पडने लगीं। मामूली किवाड़ तो थे ही, तीन-चार चोटो मे दोनों किवाड़े नीचे आ रहे, और वह मरदुद लालटेन लिये कमरे में घुसा । उस वक्त मेरी क्या हालत थी, इसका अदाज आप खुद कर सकते हैं। उसने मुझे देखते ही लालटेन रख दी और मेरी गर्दन पकड़कर बोला-अच्छा, आप यहाँ तशरीफ रखते हैं । आइए, श्राप की कुछ ख़ातिर करूँ। ऐसे मेहमान रोज़ कहाँ मिलते हैं । यह कहते हुए उसने मेरा एक हाथ पकडकर इतने जोर से बाहर की तरफ ढकेला कि मैं आँगन मे श्रौधा जा गिरा। उस शैतान की आँखों से अगारे निकल रहे थे। मालूम होता था, उसके होठ मेरा खून चूसने के लिए बढे आ रहे हैं। मैं अभी जमीन से उठने भी न पाया था कि वह कसाई एक बडा-सा तेज छुरा लिये मेरी गर्दन पर श्रा पहुँचा , मगर जनाब, हूँ पुलीस का आदमी । उस वक्त मुझे एक चाल सूझ गई । उसने मेरी जान बचा ली, बरना अाज अापके साथ तांगे पर न बैठा होता। मैने हाथ जोड. कर कहा- हुजूर, मैं बिलकुल वेकसूर हूँ। मै तो मीर साहब के साथ पाया था। उसने गरजकर पूछा-कौन मीर साहब १ मैंने जी कड़ा करके कहा-- वही, जो मचान पर बैठे हुए हैं । मैं तो हुजूर का गुलाम ठहरा, जहाँ हुक्म पाऊँगा, आपके साथ जाऊँगा । मेरी इसमे क्या ख़ता है। 'अच्छा, तो कोई मीर साहब मचान पर भी तशरीफ रखते हैं ? उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और और कोठरी में जाकर मचान पर देखा। वह हज़रत सिमटे-सिमटाये, भीगी बिल्ली बने बैठे थे। चेहरा ऐसा पीला पड़ गया था, गोया बदन में जान ही नहीं।