पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/९२

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दारोगाजी ९१ आठ भी नहीं बजे । कहीं साँप तो नहीं तूंघ गया। अल्लाह जानता है अब और देर की, तो किवाड़ चिड़वा डालूंगा। मैंने गिड़गिड़ाकर कहा- खुदा के लिए मेरे छिपने की कोई जगह बताओ । पिछवाड़े कोई दरवाजा नहीं हैं ? 'ना! 'सडास तो है ? 'सबसे पहले वह वहीं जायेंगे।' 'अच्छा वह सामने कोठरी कैसी है ? 'हाँ है तो, लेकिन कहीं कोठरी खोलकर देखा तो ? 'क्या बहुत डबल आदमी है ? 'तुम जैसे दो को बग़ल में दबा ले ।' 'तो खोल दो कोठरी । वह ज्योंही अदर आयेगा, मैं दरवाज़ा खोलकर निकल भागूंगा।" हसीना ने कोठरी खोल दी। मैं अदर जा घुसा। दरवाजा फिर वंद हो गया। मुझे कोठरी में बंद करके हसीना ने जाकर सदर दरवाज़ा खोला और बोली-क्यों किवाड़ तोड़े डालते हो ? आ तो रही हूँ। मैंने कोठरी के किवाड़ों के दरवाज़ों से देखा । श्रादमी क्या पूरा देव था। अदर आते ही बोला--तुम सरेशाम से सो गई थी। 'हाँ, ज़रा आँख लग गई थी।' 'मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा था कि तुम किसी से बात कर रही हो।' 'वहम की दवा तो लुकमान के पास भी नहीं !' 'मैंने साफ सुना । कोई न कोई था ज़रूर । तुमने उसे कहीं छिपा रखा है।" 'इन्हीं बातो पर तुमसे मेरा जी जलता है। सारा घर तो पड़ा है, देख क्यो नहीं लेते। 'देखू गा तो मैं ज़रूर ही, लेकिन तुमसे सीधे-सीधे पूछता हूँ, बतला दो, कौन था ? हसीना ने कुंजियों का गुच्छा फेकते हुए कहा-अगर कोई था तो घर