पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/९०

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MO . दारोगाजी टर उतनी ख़राब नहीं है, जितनी मैंने समझी थी। और, क्यो ख़राब होने लगी मुझ-जैसे दुनिया में क्या और आदमी ही नहीं हैं । मैंने दरवाजा खटखटाया। अंदर से वह बद था | आवाज़ आई- कौन है ? मैने कहा-बाह ! इतनी जल्द भूल गई। मैं हूँ, बशीर कोई जवाब न मिला । आवाज उसी की थी, इसमें शक नहीं ; फिर दरवाजा क्यों नहीं खोलती ? जरूर सुझसे नाराज है । मैने फिर किवाड़ खट- खटाये और लगा अपनी मुसीबतों का किस्सा सुनाने । कोई पंद्रह मिनट के बाद दरवाजा खुला । हसीना ने मुझे इशारे से अंदर बुलाया और चट किवाड़ बद कर लिये । मैने कहा-मैं तुमसे मुश्राफी मांगने आया हूँ । यहाँ से जाकर मैं बड़ी मुश्किल में फंस गया । इलाका इतना खराब है कि दम मारने की मुहलत नहीं मिलती। हसीना ने मेरी तरफ न देखकर ज़मीन की तरफ ताकते हुए कहा- मुअाफी किस बात की ? तुमसे मेरा निकाह तो हुआ न था । दिल कहीं और लग गया, तो मेरी याद क्यों आती। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं। जैसा और लोग करते हैं, वैसा ही तुमने किया । यही क्या कम है कि इतने दिनों के बाद इधर आ तो गये । रहे तो खैरियत से ? 'किसी तरह जिंदा हूँ। 'शायद जुदाई मे घुलते-घुलते यह तोह निकल पाई है। खुदा झूठ न बुलवाये, तब से दूने हो गये हो ।' मैंने झेपते हुए कहा-यह सारा बलग़म का फिसाद है । भला मोटा मैं क्या होता । उधर का पानी निहायत बलगमी है। तुमने तो मेरी याद ही सुला दी। उसने अबकी मेरी ओर तेज निगाहों से देखा और बोली-ख़त का जवाब तक न दिया, उलटे मुझी को इलज़ाम देते हो। मैं तुम्हें शुरू से बेवफा समझती थी, और तुम वैसे ही निकले। बीबी लाये और मुझे ख़त तक न लिखा! | मैंने ताज्जुब से पूछा-तुम्हे कैसे मालूम हुआ कि मेरी शादी हो गई ?