7 n डिमांसट्रेशन ८३ ड्रामेटिस्ट--यहाँ जनता अच्छे ड्रामों की कद्र नहीं करती, नहीं तो यह ड्रामा लाजवाब होता। सेठजी-जनता कद्र नहीं करती न करे, हमे जनता की बिलकुल परवाह नहीं है, रत्ती बराबर परवाह नहीं है। मैं इसकी तैयारी में ५० हजार केवल बाबू साहब की खातिर से खर्च कर दूंगा । आपने इतनी मेहनत से एक चीज लिखी है, तो मैं उसका प्रचार भी उतने ही हौसले से करूँगा। हमारे साहित्य के लिए क्या यह कुछ कम सौभाग्य की बात है कि श्राप-जैसे महान् पुरुष इस क्षेत्र में आ गये । यह कीर्ति हुजूर को अमर बना देगी। ड्रामेटिस्ट-मैंने तो ऐसा ड्रामा आज तक नहीं देखा। लिखता मैं भी हूँ, और लोग भी लिखते हैं । लेकिन आपकी उड़ान को कोई क्या पहुंचेगा ! कहीं कहीं तो अापने शेक्सपियर को भी मात कर दिया है। सेठजी- तो जनाब, जो चीज़ दिल की उमग से लिखी जाती है, वह ऐसी ही अद्वितीय होती है। शेक्सपियर ने जो कुछ लिखा, रुपये के लोभ से लिखा । हमारे दूसरे नाटककार भी धन ही के लिए लिखते हैं। उनमें वह बात कहाँ पैदा हो सकती है । गोसाईजी की रामायण क्यों अमर है। इसी लिए कि वह भक्ति और प्रेम से प्ररित होकर लिखी गई है। सादी की गुलिस्तां और बोस्ता, होमर की रचनाएँ, इसी लिए स्थायी हैं कि उन कवियो ने दिल की उमग से लिखा। जो उमग से लिखता है, वह एक-एक शब्द, एक एक वाक्य, एक-एक उक्ति पर महीनों खर्च कर देता है । धनेच्छु को तो एक काम जल्दी से समास करके दूसरा काम शुरू करने की फिक्र होती है। ड्रामेटिस्ट-श्राप बिल्कुल सत्य कह रहे हैं। हमारे साहित्य की अवनति केवल इसलिए हो रही है कि हम सब धन के लिए, या नाम के लिए लिखते हैं। सेठजी-सोचिए, आपने दस साल केवल संगीतालय के लिए खर्च कर दिये । लाखों रुपये कलावंतों और गायकों को दे डाले होंगे। कहीं-कहीं से और कितने परिश्रम और खोज से इस नाटक की सामग्री एकत्र की । न जाने कितने राजों महाराजो को सुनाया। इस परिश्रम और लगन का पुरस्कार कौन दे सकता है ।
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