। ७८ मानसरोवर ऊपर जाते ही रसिकलाल ने मालिक से कहा-क्षमा कीजिएगा, हमें श्राने में देर हुई । हम मोटर से नहीं, पाव-पाव आये हैं। आज यही सलाह हुई कि प्रकृति की छटा का आनंद उठाते चले ; गुरुप्रसाद जी तो प्रकृति के उपासक है । इनका बस होता, तो आज चिमटा लिये या तो कहीं भीख मांगते होते, या किसी पहाड़ी गांव में वटवृक्ष के नीचे बैठे पक्षियों का चह- कना सुनते होते । विनोद ने रद्दा जमाया-और आये भी तो सीधे रास्ते से नहीं, जाने कहाँ-कहाँ का चक्कर लगाते, खाक छानते । पैरों में जैसे सनीचर हैं । अमर ने और रग जमाया-पूरे सतजुगी आदमी हे । नौकर चाकर तो मोटरो पर सवार होते हैं और आप गली-गली मारे-मारे फिरते हे। जब और रईस मीठी नींद के मजे लेते होते हैं, तो आप नदी के किनारे ऊषा का शृंगार देखते हैं। मस्तराम ने फरमाया-कवि होना, माने दोन-दुनिया से मुक्त हो जाना है । गुलाब ने ही युरोप के बड़े-बड़े कवियों को आसमान पर पहुंचा दिया है । युरोप में होते तो आज इनके द्वार पर हाथी झूमता होता । एक दिन एक बालक को रोते देखकर आप रोने लगे। पूछता हूँ-भई क्यों रोते हो, तो और रोते हैं । मुंह से आवाज़ नहीं निकलती। बड़ी मुश्किल से आवाज निकली। विनोद--जनाब ! कवि का हृदय कोमल भावों का स्रोत है, मधुर संगीत का भडार है, अनंत का आईना है। रसिक-क्या बात कही है आपने, अनत का आईना है ! वाह ! कवि की सोहबत में आप भी कुछ कवि हुए जा रहे हैं । गुरुप्रसाद ने नम्रता से कहा--मै कवि नहीं हूँ और न मुझे कवि होने का दावा है । आप लोग मुझे जबरदस्ती कवि बनाये देते हैं। कवि स्रष्टा की वह अद्भुत रचना है जो पचभूतो की जगह नौ रसों से बनती है । मस्तराम--आप का यही एक वाक्य है, जिसपर सैकड़ों कविताए न्यौछावर हैं। सुनी अापने रसिकलाल जी, कवि की महिमा । याद कर लीजिए, रट डालिए। रसिकलाल-कहाँ तक याद करे, भैया, यह तो सूक्तियो में बातें करत .
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