पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६५

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मैं अब ६४ मानसरोवर में खेला गया। और मदन कंपनी के मैनेजर ने उसे बधाइयां दी थीं। ड्रामे के दो-चार टुकड़े जो उसके पास पड़े थे, मुझे ।सुनाये । मुझे ड्रामा बहुत पसन्द आया। उसने काशी के एक प्रकाशक के हाथ वह ड्रामा वेच दिया था और कुल पचीस रुपये पर । मैंने कहा, उसे वापस मॅगा लो । रुपये मैं दे दूंगा। ऐसी सुन्दर रचना किसी अच्छे प्रकाशक को देगे, या किसी थियेटर कपनी से खेलवायेगे । तीन-चार दिन के बाद मालूम हुआ कि प्रकाशक अब पचास रुपए लौटायेगा । कहता है, मै इसका कुछ अश छपा चुका हूँ। कहा, मॅगा लो पचास रुपये ही सही । ड्रामा वी० पी० से वापस आया । मैंने पचास रुपये दे दिये । महीना खत्म हो रहा था । होटलवाले दूसरा महीना शुरू होते ही रुपये पेशगी मांगेगे । मैं इसी चिन्ता में था, कि जोशी ने आकर कहा- माथुर के साथ रहूँगा । वेचारा गरीब आदमी है । अगर मै बीस रुपये भी दे दूंगा, तो उसका काम चल जायगा । मै बहुत खुश हुआ। दूसरे दिन वह माथुर के घर डट गया। अब आता, तो माथुर के घर का कोई-न-कोई रहस्य लेकर आता । यह तो मैं जानता था, कि माथुर की आर्थिक दशा अच्छी नहीं हैं । बेचारा रेलवे के दफ्तर में नौकर था । वह नौकरी भी छूट गई थी ; मगर यह न मालूम था कि उसके यहाँ फाके हो रहे हैं। कभी मालिक मकान आकर गालियाँ -सुना जाता है, कभी दूधवाला, कभी बनिया, कभी कपड़ेवाला । बेचारा उनसे मुँह छिपाता फिरता है । जोशी आँखो मे आँसू भर-भरकर उसके सकटों की करुण कहानी कहता और रोता। मैं तो जानता था, मैं ही एक श्राफत का मारा हूँ । माथुर की दशा देखकर मुझे अपनी विपत्ति भूल गई । मुझे अपनी ही चिन्ता है, कोई दूसरी फिक्र नहीं। जिसके द्वार पर जा पहूँ दो रोटियाँ 'मिल जायेंगी ; मगर माथुर के पीछे तो पूरा खटला है । मा, दो विधवा बहने, एक भांजी, दो भाजे, एक छोटा भाई । इतने बड़े परिवार के लिए पचास रुपये तो केवल रोटी-दाल के लिए चाहिए। माथुर सच्चा वीर है, देवता है, जो इतने बड़े परिवार का पालन कर रहा है। वह अब अपने लिए नहीं, माथुर के लिए दुखी था।