पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६२

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ढपोरसंख ६१ का अनुभव कर सकता है, जो इस समय मुझे हुअा। सेठ अमीरचंद को दस लाख का दान करके भी इतना आनद न हुआ होगा। दिया तो मैंने ऋण समझकर ही ; पर वह दोस्ती का ऋण था, जिसका अदा होना स्वप्न का यथार्थ होना है। उस पत्र को मैं कभी न भूलूंगा, जो धन्यवाद के रूप में चौथे दिन मुके मिला । कैसे सच्चे उद्गार थे ! एक-एक शब्द अनुग्रह में डूबा हुा । मैं उसे साहित्य की एक चीज़ समझता हूँ। देवीजी ने चुटकी ली-सौ रुपये में उससे बहुत अच्छा पत्र मिल सकता है। ढपोरसख ने कुछ जवाब न दिया । कथा कहने में तन्मय थे। बबई मे वह किसी प्रसिद्ध स्थान पर ठहरा था। केवल नाम और पोस्ट- बॉक्स लिखने ही से उसे पत्र मिल जाता था। वहां से कई पत्र आये। वह प्रसन्न था। देवीजी फिर बोलीं-प्रसन्न क्यों न होता, कपे मे एक चिड़िया जो फॅम गई थी। ढपोरसख ने चिढकर कहा [-या तो मुझे कहने दो, या तुम कहो। बीच मे बोलो मत । बबई से कई दिन के बाद एक पत्र पाया कि एजेसी ने उसके व्यवहार से प्रसन्न होकर उसे काशी में नियुक्त कर दिया है और वह काशी आ रहा है । उसे वेतन के उपगत भत्ता भी मिलेगा। काशी मे उसके एक मौसा थे, जो वहाँ के प्रसिद्ध डॉक्टर थे, पर वह उनके घर न उतरकर अलग ठहरा। इससे उसके आत्मसम्मान का पता चलता है ; मगर एक महोने में काशी से उसका जी भर गया। शिकायत से भरे पत्र आने लगे-सुबह से शाम तक फौजी आदमियों की खुशामद करनी पड़ती है, सुबह का गया-गया दस बजे रात को घर आता हूँ, उस वक्त अकेला अधेरा घर देखकर चित्त दुःख से भर जाता है, किससे बोलू किससे हँसू । बाज़ार की पूरियां खाते खाते तग आ गया हूँ। मैंने समझा था, अब कुछ दिन चैन से कटेगे , लेकिन मालूम होता है, अभी विस्मत मे ठोकरे खाना लिखा है । मैं इस तरह जीवित नहीं रह सकता। रात- ।