पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/५६

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ढपोरसंख . , पूछा -मेरी समझ में कुछ नहीं पा रहा है, आप किसका जिक्र कर रही हैं ? वह कौन था ? देवीजी ने अखेि नचाकर कहा--इन्हीं से पूछो, कौन था ? इनका बहनोई था ! ढपोरसख ने झपकर कहा--अजी, एक साहित्य-सेवी या--करुणाकर जोशी । बेचारा विपत्ति का मारा यहाँ पा पड़ा था। उस वक्त तो यह भी भैया-भैया करती थीं, हलवा बना बनाकर खिलाती थीं, उसकी विपत्ति-कथा सुनकर टेसवे बहाती थीं, और आज वह दगाबाज़ है, लपट है, लबार है ! देवीजी ने कहा-वह तुम्हारी खातिर थी । मैं समझती थी, लेख लिखते हो व्याख्यान देते हो, साहित्य के मर्मज्ञ बनते हो, कुछ तो श्रादमी पहचानते होंगे ; पर अब मालूम हो गया, कि कलम घिसना और बात है, मनुष्य की नाड़ी पहचानना और बात । मैं इस जोशी का वृत्तात सुनने के लिए उत्सुक हो उठा। ढपोरसख तो अपना पचड़ा सुनाने को तैयार थे ; मगर देवीजी ने कहा-खाने-पीने से निवृत्त होकर पचायत बैठे । मैंने भी इसे स्वीकार कर लिया। देवीजी घर मे जाती हुई बोलीं--तुम्हे कसम है जो अभी जोशी के बारे मे एक शब्द भी इनसे कहो। मै भोजन बनाकर जब तक खिला न लूँ, तक दोनों आदमियो पर दफा १४४ है । ढोरसंख ने खेिं मारकर कहा--तुम्हारा नमक खाकर यह तुम्हारी तरफदारी करेंगे हो! बारे देवीजी के कानों में यह जुमला न पडा। धीमे स्वर मे कहा भी गया था, नहीं तो देवीजी ने कुछ-न-कुछ जवाब ज़रूर दिया होता। देवीजी चूल्हा जला चुकीं और ढपोरसख उनकी ओर से निश्चित हो गये, तो मुझसे बोले--जब तक वह रसोई में है, मै सक्षेत्र में तुम्हें वह वृत्तात सुना हूँ? मैंने धर्म की आड लेकर कहा-नहीं भाई, मै पच बनाया गया हूँ, और इस विषय मे कुछ न सुनेगा । उन्हें आ जाने दो। 'मुझे भय है, कि तुम उन्हों का-सा फैसला कर दोगे और फिर वह मेरा घर में रहना अपाढ कर देंगी। तव