तगादा ३५ सेठजी ने इधर-उधर ताककर कहा-यहाँ तो कोई तम्बोली नहीं है। सुन्दरी उनकी ओर कटाक्षपूर्ण नेत्रों से देखकर बोली- क्या मेरे लगाये पान तम्बोली के पानों से भी खराब होगे ? सेठजी ने लजित होकर कहा-नहीं-नहीं, यह बात नहीं। तुम मुसलमान , , सुन्दरी ने विनोदमय आग्रह से कहा-खुदा की कसम, इसी बात पर मैं तुम्हें पान खिलाकर छोडू गी! यह कहकर उसने पानदान से एक बीड़ा निकाला और सेठजी की तरफ़ चली । सेठजी ने एक मिनिट तक तो, हाँ ! हाँ ! किया, फिर दोनों हाथ बढाकर उसे हटाने की चेष्टा की, फिर ज़ोर से दोनों ओठ बंद कर लिये पर जब सुन्दरी किसी तरह न मानी, तो सेठजी अपना धर्म लेकर वे-तहाशा भागे । सोंटा वहीं चारपाई पर रह गया। बीस कदम पर जाकर आप रुक गये और हाफकर बोले-देखो, इस तरह किसी का धर्म नहीं लिया जाता। हम लोग तुम्हारा छूआ पानी भी पी ले, तो धर्म भ्रष्ट हो जाय । सुन्दरी ने फिर दौड़ाया। सेठजी फिर भागे। इधर ५० वर्ष से उन्हें इस तरह भागने का अवसर न पड़ा था। धोती खिसककर गिरने लगी; मगर इतना अवकाश न था कि धोती बाँध लें। बेचारे धर्म को कधे पर रखे दौड़े चले जाते थे । न मालूम कब कमर से रुपयों का बटुअा खिसक पड़ा। जब एक ५० कदम पर फिर रुके और धोती ऊपर उठाई, तो बटुना नदारत । पीछे फिरकर देखा । सुन्दरी हाथ मे बटुवा लिये, उन्हें दिखा रही थी और इशारे से बुला रही थी। मगर सेठजी को धर्म रुपये से कहीं प्यारा था । दो-चार कदम चले फिर रुक गये। । यकायक धर्म-बुद्धि ने डाँट बताई। थोड़े रुपये के लिए धर्म छोड़ देते हो । रुपये बहुत मिलेगे । धर्म कहाँ मिलेगा ? यह सोचते हुए वह अपनी राह चले, जैसे कोई कुत्ता झगड़ालू कुत्तों के बीच से आहत, दुम दबाये भागा जाता हो और बार-बार पीछे फिरकर देख लेता हो कि कही वे दुष्ट प्रा तो नहीं रहे हैं ।
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