पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२९४

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तक मोगे की घड़ी २९५ उसका हिस्सा भी हड़प कर जाता था। अब मैं इस योग्य हो रहा कि उसका हिस्सा उसे दे दूं या स्त्री को अपने साथ रक्खू । तुमने मुझे बहुत अच्छा पाठ दे दिया। 'अगर तुम्हारी आमदनी कुछ बढ जाय, तो फिर उसी तरह रहने लगोगे १० 'नहीं, कदापि नहीं । अपनी स्त्री को बुला लूंगा।' 'अच्छा, तो खुश हो जानो ; तुम्हारी तरक्की हो गई हैं।' मैंने अविश्वास के भाव से कहा- 'मेरी तरक्की अभी क्या होगी। अभी सुझसे पहले के लोग पड़े नाक रगड़ रहे हैं।' 'कहना हूँ मान जाव । मुझपे तुम्हारे बड़े बाबू कहते थे ।' मुझे अब भी विश्वास न श्राया। पर मारे कुतूहल के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। उधर दानू बाबू अपने घर गये, इधर मैं बड़े बाबू के घर पहुंचा। बड़े बाबू बैठे अपनो बकरो दुइ रहे थे। मुझे देखा, तो झेपते हुए बोले-'क्या करे भाई, अाज ग्वाला नहीं पाया, इसलिए यह बला गले पड़ी। चलो बैठो।' मैं कमरे में जा बैठा । बाबूजी भी कोई श्राध घटे के बाद हाथ में गुड़- गुड़ी लिये निकले ओर इधर-उधर की बाते करते रहे । श्राख़िर मुझसे न रहा गया, बोला-'मैंने सुना है, मेरी कुछ तरक्की हो गई है ।' बड़े बाबू ने प्रसन्न नुख होकर कहा -'हाँ, भई, हुई तो है । तुमसे दानू बाबू ने कहा होगा। 'जी हाँ, अभो कहा है। मगर मेरा नवर तो अभी नहीं आया, तरक्की . n कैसे हुई । 'यह न पूछो, अफसरों की निगाह चाहिए, नबर-सबर कौन देखता है।' 'लेकिन पाखिर मुझे किसकी जगह मिली। अभी कोई तरक्की का मौका भी तो नहीं। 'कह दिया, भई अफसर लोग सब कुछ कर सकते हैं । साहब एक दूसरी मद से तुम्हें १५) मीना देना चाहते हैं । दानू बाबू ने साहब से कहा- सुना होगा।' 'किसी दूसरे का हक मारकर तो मुझे ये रुपये नहीं दिये जा रहे हैं ? 'नहीं, यह बात नहीं। मैं खुद इसे न मंजूर करता ।' महीना गुज़रा,