२९२ मानसरोवर 'गुजर तो लोग ५) में भी करते हैं और ५००) मे भी। इसकी न चलायो, अपनी सामर्थ्य देख लो।" दानू बाबू ने जिस निष्ठुरता से ये बाते की, उससे मुझे विश्वास हो गया कि अब इनके सामने रोना-धोना व्यर्थ है । यह अपनी पूरी रकम लिये बिना न मानेगे । घड़ी अधिक से अधिक २००) की थी। लेकिन इससे क्या होता है। उन्होंने तो पहले ही उसका दाम बता दिया था। अब उस विषय पर मीन-मेष विचारने का मुझे साहस कैसे हो सकता था। किस्मत ठककर घर आया। यह विवाह करने का मज़ा है ! उस वक्त कैसे प्रसन्न थे, मानों चारों पदार्थ मिले जा रहे थे । अब नानी के नाम को रोश्रो। घडी का शौक चर्राया था, उसका फल भोगो ! न घड़ी बांधकर जाते, तो ऐसी कौन-सी किरकिरी हुई जाती थी। मगर तब तुम किसकी सुनते थे। देखे १५) मे कैसे गुजर करते हो । ३०) मे तो तुम्हारा पूरा ही न पड़ता था, १५) मे तुम क्या भुना लोगे। इन्हीं चिंताओं में पड़ा-पड़ा मै सो गया। भोजन करने की भी सुध न रही! ज़रा सुन लीजिए कि ३०) में - मैं कैसे गुज़र करता था-२०) तो होटल को देता था । ५) नाश्ते का ख़र्च था और बाकी ५) में पान, सिगरेट, कपड़े, जूते सब कुछ | मैं कौन राजसी ठाट से रहता था, ऐसी कौन-सी फिजूलखर्ची करता था कि अब ख़र्च मे कमी करता। मगर दानू बाबू का कर्ज तो चुकाना ही था। रोकर चुकाता या हँसकर । एक बार जी में आया कि ससुराल जाकर घड़ी उठा लाऊँ, लेकिन दावू बाबू से कह चुका था कि घड़ी खो गई। अब घड़ी लेकर जाऊँगा, तो यह मुझे झूठा और लबाड़िया समझेगे। मगर क्या मैं यह नहीं कह सकता कि मैंने समझा था कि घड़ी खो गई, ससु- राल गया तो उसका पता चल गया। मेरी बीबी ने उड़ा दी थी। हां यह चाल अच्छी थी। लेकिन देवीजी से क्या बहाना करूँगा । उसे कितना दुःख होगा। घड़ी पाकर कितनी खुश हो गई थी ! अब जाकर घड़ी छीन लाऊँ, तो शायद फिर मेरी सूरत भी न देखे। हाँ यह हो सकता था कि दानू बाबू
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