२८ मानसरोवर सेठजी ने पूछा-भोजन ? सेठानी ने गरजकर कहा- नहीं। 'सांझ का? 'श्राने पर देखी जायगी।' ( २ ) सेठनी के एक किसान पर पांच रुपये आते थे । ६ महीने से दुष्ट ने सूद- न्याज कुछ न दिया था, और न कभी कोई सौगात लेकर ही हाज़िर हुआ था। उसका घर तीन कोस से कम न था, इसी लिए सेठजी टालते आते थे । श्राज उन्होंने उसी गांव चलने का निश्चय कर लिया । आज बिना उस दुष्ट से रुपये लिये न मानूगा, चाहे कितना ही रोये, घिघियाये ; मगर इतनी लबी यात्रा पैदल करना निन्दास्पद था। लोग कहेंगे-नाम बड़े दशन थोड़े। कहलाने को सेठ, चलते हैं पैदल । इसलिए मंथर गति से इधर-उधर ताकते, राहगीरो से बातें करते चले जाते थे कि लोग समझे वायु-सेवन करने जा रहे हैं। सहसा एक खाली इक्का उसी तरफ जाता हुआ मिल गया । इक्केवान ने पूछा-कहाँ लाला, कहाँ जाना है ? सेठजी ने कहा-जाना तो कहीं नहीं है, दो परग तो और हैं ; लेकिन लायो बैठ जाएँ। इक्केवाले ने चुभती हुई आँखो से सेठ जी को देखा । सेठजी ने भी अपनी मोल आँखों से उसे घूरा। दोनों समझ गये, आज लोहे के चने चबाने पड़ेगे । इक्का चला। सेठजी ने पहला वार किया-कहाँ घर है मियां साहब ? 'घर कहाँ है हुजूर, जहाँ पड नहूँ, वहीं पर है। जब घर था तब था। अब तो बेघर, वेदर हूँ और सबसे बड़ी बात यह है कि बेपर हूँ। तक़दीर ने पर काट लिये। लॅडूरा बनाकर छोड़ दिया। मेरे दादा नवाबी मे चकले- दार थे, हुजूर, सात जिले के मालिक, जिसे चाहें तोप दम कर दे, फांसी पर लटका दे । सूरज निकलने के पहले लाखो की थैलियां नजर चढ़ जाती थीं हुजूर । नवाब साहब भाई को तरह मानते थे । एक दिन वह थे, एक दिन यह है कि हम आप लोगों की गुलामी कर रहे हैं । दिनों का फेर है।' n
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