पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२८०

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दो सखियाँ २८१ मैंने आपत्ति करते हुए कहा-कुसुम, तुम यह प्रश्न पूछकर मेरे साथ अन्याय कर रही हो । तुम्हें खुद समझ लेना चाहिए था कि इस बात मे कोई सार नहीं है । विनोद को केवल भ्रम हो गया। 'विना किसी कारण के 'हो, मेरी समझ मे तो कोई कारण न था।' 'मैं इसे नहीं मानती। यह क्यों नहीं कहतीं कि विनोद को जलाने,. चिढ़ाने और जगाने के लिए तुमने यह स्वांग रचा था।' कुसुम की सूझ पर चकित होकर मैंने कहा -वह तो केवल दिल्लगी थी। 'तुम्हारे लिए दिल्लगी थी, विनोद के लिए वज्राघात था। तुमने इतने दिनों उनके साथ रहकर भी उन्हें नहीं समझा ! तुम्हें अपने बनाव संवार के आगे उन्हें समझने की कहाँ फुरसत । कदाचित् तुम समझती हो कि तुम्हारी यह मोहिनी मूर्ति ही सब कुछ है । मैं कहती हूँ, इसका मूल्य दो-चार महीनों के लिए हो सकता है । स्थायी वस्तु कुछ और ही है ।' मैंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहा-विनोद को मुझसे कुछ पूछना तो चाहिए था? कुसुम ने हँसकर कहा-यही तो वह नहीं कर सकते। तुमसे ऐसी बातें पूछना उनके लिए असभव है । वह उन प्राणियो में हैं, जो स्त्री की आँखों से गिरकर जीते नहीं रह सकते । स्त्री या पुरुष किसी के लिए भी वह किसी प्रकार का धार्मिक या नैतिक बधन नहीं रखना चाहते। वह प्रत्येक प्राणी के लिए पूर्ण स्वाधीनता के समर्थक हैं । मन और इच्छा के सिवा वह और कोई बधन स्वीकार नहीं करते । इस विषय पर भेरी उनसे खूब बाते हुई हैं। खैर मेरा पता उन्हें मालूम था ही, यहाँ से सीधे मेरे पास पहुंचे। मैं समझ गई कि आपस मे पटी नहीं । मुझे तुम्ही पर सदेह हुआ। मैंने पूछा-क्यों ? मुझपर तुम्हें क्यों संदेह हुआ ? 'इसलिए कि मैं तुम्हें पहले देख चुकी थी।' 'अब तो तुम्हें मुझपर सदेह नहीं है ११ 'नहीं, मगर इसका कारण तुम्हारा सयम नहीं, परपरा है। मैं इस समय स्पष्ट बातें कर रही हूँ, इसके लिए क्षमा करना ।' >