पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२७६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दो सखियाँ २७७ -'बहन, इस तरह एक हफ़्ता गुजर गया। मैं प्रातःकाल मैके जाने की तैयारियां कर रही थी-यह घर फाडे खाता था कि सहसा डाकिये ने मुझे एक पत्र लाकर दिया । मेरा हृदय धक् धक् करने लगा। मैंने कापते हुए हाथों से पत्र लिया, पर सिरनामे पर विनोद की परिचित हस्तनिपि न थी, लिपि किसी स्त्री की थी, इसमें सदेह न था, पर मैं उससे सर्वथा अपरिचित थी। मैने तुरंत पत्र खोला और नीचे की तरफ देखा, तो चौंक पडी-यह कुसुम का पत्र था। मैंने एक ही सांस मे सारा पत्र पढ लिया । लिखा था- विनोद बाबू तीन दिन यहाँ रहकर बंबई चले गये। शायद विलायत जाना चाहते हैं । तीन-चार दिन बबई रहेंगे। मैंने बहुत चाहा कि उन्हें देहली वापस कर दु, पर वह किसी तरह न राजी हुए । तुम उन्हें नीचे लिखे पते से तार दे दो । मैंने उनसे यह पता पूछ लिया था। उन्होंने मुझे ताकीद कर दी थी कि इस पते को गुप्त रखना, लेकिन तुमसे क्या परदा । तुम तुरत तार दे दो। शायद रुक जायें । यह बात क्या हुई ! मुझसे तो विनोद ने बहुत पूछने पर भी नहीं बताया, पर वह दुखी बहुत थे। ऐसे आदमी को भी तुम अपना न बना सकीं, इसका मुझे आश्चर्य है, पर मुझे इसकी पहले ही शका थी । रूप और गर्व में दीपक और प्रकाश का सबध है । गर्व रूप का प्रकाश है। मैंने पत्र रख दिया और उसी वक्त विनोद के नाम तार भेज दिया कि बहुत बीमार हूँ, तुरत श्राश्रो । मुझे आशा थी कि विनोद तार द्वारा जवाब देगे, लेकिन सारा दिन गुजर गया और कोई जवाब न आया । बॅगले के सामने से कोई साइकिल निकलती, तो मैं तुरत उसकी अोर ताकने लगती थी कि शायद तार का चपरासी हो । रात को भी मैं तार का इतजार करती रही। तब मैंने अपने मन को इस विचार से शात किया कि विनोद आ रहे हैं, इसलिए तार भेजने की ज़रूरत न समझी। अव मेरे मन मे फिर शकाएँ उठने लगीं। विनोद कुसुम के पास क्यों गये, कहीं कुसुम से उन्हें प्रेम तो नहीं है ? कहीं उसी प्रेम के कारण तो वह मुझसे विरक्त नहीं हो गये ? कुसुम कोई कौशल तो नहीं कर रही है ? उसे विनोद को अपने घर ठहराने का अधिकार ही क्या था। इस विचार से मेरा १८