पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२७३

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, , , २७४ मानसरोवर होती रहीं। मैं कान लगाये हुए थी, पर साफ कुछ न सुनाई देता था। हाँ, ऐसा मालूम होता था कि कभी माताजी रोती हैं और कभी पानंन्द । माता- जी जब पूजा करने निकलीं, तो उनकी आखें लाल थी। आनंद वहाँ से निकले, तो सीधे मेरे कमरे मे आये। मैं उन्हें आते देख चटपट मुँह ढापकर चारपाई पर पड़ रही, मानो बेख़बर सो रही हूँ। वह कमरे में आये, मुझे चारपाई पर पड़े देखा, मेरे समीप आकर एक बार धीरे से पुकारा और लौट पड़े। मुझे जगाने की हिम्मत न पड़ी। मुझे जो कष्ट हो रहा था, इसका एक- -मात्र कारण अपने को समझकर 'मन ही-मन दुखी हो रहे थे। मैंने अनुमान किया था, वह मुझ उठायेंगे, मैं मान करूँगी, वह मनायेगे; मगर सारे मसूबे ख़ाक में मिल गये। उन्हे लौटते देखकर मुझसे न रहा गया ! मैं हकबकाकर उठ बैठी और चारपाई से नीचे उतरने लगी, मगर न जाने क्यो मेरे पैर लड़खड़ाये और ऐसा जान पड़ा कि मै गिरी जाती हूँ। सहसा अानंद ने पीछे -फिरकर मुझे सँभाल लिया और बोले-लेट जाओ, लेट जात्रो, मैं कुरसी पर बैठा जाता हूँ। यह तुमने अपनी क्या गति बना रखी है। मैंने अपने को सँभालकर कहा-मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ। आपने कैसे कष्ट किया ? 'पहले तुम कुछ भोजन कर लो तो पीछे मै कुछ बात करूँगा।' 'मेरे भोजन की आपको क्या फिक्र पडी है। आप तो सैर-सपाटे कर रहे हैं ! कैसे सैर-सपाटे मैंने किये हैं, मेरा दिल ही जानता है। मगर बाते पीछे करूँगा, अभी मुँह हाथ धोकर खा लो। चार दिन से पानी तक मुंह में नहीं डाला। राम ! राम !! 'यह आपसे किसने कहा कि मैंने चार दिन से पानी तक मुंह में नहीं डाला । जब आपको मेरी परवा न थी, तो मैं क्यों दाना-पानी छोड़ती।' 'वह तो सूरत ही कह देती है । फून से ..मुरझा गये ।' 'ज़रा अपनी सूरत जाकर अाहने में देखिए ।' 'मैं पहले ही कौन बड़ा सुदर था। हठ को पानी मिले तो क्या और