२७२ मानसरोवर चौथे दिन सबेरे रसोइये ने श्राकर मुझसे कहा--बाबूजी तो अभी मुझे दशाश्वमेध घाट, पर मिले थे। मैं उन्हें देखते ही लपककर उनके पास जा "पहुंचा और बोला-भैया, घर क्यो नहीं चलते। सब लोग घबड़ाये हुए हैं । बहूजी ने तीन दिन से पानी तक नहीं पिया। उनका हाल बहुत बुरा है । यह सुनकर वह कुछ सोच में पड़ गये, फिर बोले - बहूजी ने क्यों दाना-पानी छोड़ रखा है, जाकर कह देना, जिस पाराम के लिए उस घर को न छोड़ सकी, उससे क्या इतनी जल्द जी भर गया । अम्माजी उसी समय आँगन मे श्रा गई। महराज की बातो की भनक कानो में पड़ गई, बोलीं-क्या है अलगू, क्या आनद मिला था ? महराज-हाँ, बड़ी बहू, अभी दशा मेध घाट पर मिले थे। मैंने कहा- 'घर क्यो नहीं चलते, तो बोले-उस घर में मेरा कौन बैठा हुआ है । अम्मा-कहा नहीं, और कोई अपना नहीं है, तो स्त्री तो अपनी है, उसकी जान क्यो लेते हो। महराज--मैंने बहुत समझाया बड़ी बहू, पर वह टस से मस न बुए। अम्मा-करता क्या है ? महराज -यह तो मैंने नहीं पूछा, पर चेहरा बहुत उतरा हुआ था। अम्मा-ज्यो-ज्यों तुम बूढ़े होते जाते हो, शायद सठियाते जाते हो । इतना तो पूछा होता, कहाँ रहते हो, कहाँ खाते-पीते हो। तुम्हें चाहिए था, उसका हाथ पकड़ लेते और खींचकर ले पाते। मगर तुम नमकहरामों को अपने हलवे-माडे से मतलब, चाहे कोई मरे या जिये। दोनों वक्त बढ़-बढ़कर हाथ मारते हो और मूछों पर ताव देते हो। तुम्हे इसकी क्या परवाह है कि घर में दूसरा कोई खाता है या नहीं। मैं तो परवाह न करती, वह भाये या न आये। मेरा धर्म पालना-पोसना था, पाल-पोस दिया । अब जहाँ चाहे रहे। पर इस बहू को क्या करूँ, जो रो-रोकर प्राण दिये डालती है। तुम्हें ईश्वर ने अखेि दी हैं, उसकी हालत देख रहे हो। क्या मुंह से इतना भी न फूटा कि -बहू अन्न जल त्याग किये पड़ी हुई है। महराज-बहूजी, नारायन जानते हैं, मैंने बहुत तरह समझाया, मगर वह तो जैसे भागे जाते थे। फिर मैं क्या करता।
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