दो सखियाँ , तो जो कुछ हो, तुम हो ; मुझे कौन गिनता है। आज जरा-सी बात पर यह इतना झल्ला रहा है, और मेरी अम्माजी ने मुझे सैकड़ों ही बार पीटा होगा। मैं भी छोकरी न थी, तुम्हारी ही उम्न की थी, पर मजाल न थी कि तुम्हारे दादाजी से किसी के सामने बोल सकूँ। कच्चा ही खा जाती। मार ख.कर रात-रात भर रोती रहती थी, पर इस तरह घर छोड़कर कोई न भागता था । आजकल के लौडे ही प्रेम करना नहीं जानते, हम भी प्रेम करते थे, पर इस तरह नहीं कि मा बाप, छोटे-बडे किसी को कुछ न समझे। यह कहती हुई माताजी पूजा करने चली गई। मैं अपने कमरे में आकर नसीबों को रोने लगी। यही शका होती थी कि आनद किसी तरफ की राह न लें। बार-बार जी मसोसता था कि रुपये क्यों न दे दिये। बेचारे इधर-उधर मारे-मारे फिरते होंगे। अभी हाथ-मुँह भी नहीं धोया, जल पान भी नहीं किया। वक्त पर जल-पान न करेगे, तो ज़काम होता है, तो हरारत भी हो जाती है । महरी से कहा -जरा जाकर देख तो बाबूजी कमरे मे हैं । उसने श्राकर कहा-कमरे मे तो कोई नहीं है, खूटी पर कपड़े भी नहीं हैं । मैंने पूछा-क्या और भी कभी इस तरह अम्माजी से रूठे हैं ? महरी बोली-कभी नहीं बहू, ऐसा सीधा तो मैने लड़का ही नहीं देखा । मालकिन के सामने कभी सिर नहीं उठाते थे । आज न जाने क्यों चले गये। मुझे श्राशा थी कि दोपहर को भोजन के समय वह श्रा जायेंगे। लेकिन दोपहर को कौन कहे, शाम भी हो गई और उनका पता नहीं। सारी रात जागती रही । द्वार की ओर कान लगे हुए थे। मगर रात भी उसी तरह गुज़र गई । बहन, इस प्रकार पूरे तीन दिन बीत गये। उस वक्त तुम मुझे देखती, तो पहचान न सकतीं। रोते-रोते अखेिं लाल हो गई थीं। इन तीन दिनों में एक पल भी नहीं सोई, और भूख का तो ज़िक्र हो क्या, पानी तक न पिया। प्यास ही न लगती थी। मालूम होता था, देह मे प्राण ही नहीं है। सारे घर में मातम-सा छाया हुआ था। अम्माजी भोजन करने दोनों वक्त जाती थीं, पर मुंह जूठा करके चली पाती थी। दोनों ननदों की हँसो और चुहल भी गायब हो गई थी। छोटी ननदजी तो मुझमे अपना अपराध क्षमा कराने श्राई। .
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