पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२६८

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दो सखियाँ २६९ 'तो तुम खाओ, मैं नहीं खाना चाहता । यही फायदा क्या थोड़ा है कि तुम्हारी दुर्दशा आँखों से न देखू गा । न देखू गा, न पीड़ा होगी।' 'अलग रहने लगोगे, तो दुनिया क्या कहेगी ।' 'इसकी परवा नहीं । दुनिया अधी है।' 'लोग यही कहेंगे कि स्त्री ने यह माया फैलाई है ।' 'इसकी भी परवा नहीं, इस भय से अपना जीवन संकट में नहीं डालना चाहता मैंने रोकर कहा--तुम मुझे छोड़ दोगे, तुम्हे मेरी ज़रा भी मुहब्बत नहीं है। बहन, और किसी समय इस प्रम-याग्रह से भरे हुए शब्दों ने न जाने क्या कर दिया होता। ऐसे ही आग्रहों पर रियासतें मिटती हैं, नाते टूटते हैं, रमणी के पास इससे बढ़कर दूसरा अस्त्र नहीं । मैंने अानद के गले में बाहें बाल दी थी और उनके कधे पर सिर रखकर रो रही थी। मगर इस समय मानद बाबू इतने कठोर हो गये थे कि यह अाग्रह भी उनपर कुछ असर न कर सका । जिस माता ने जन्म दिया, उसके प्रति इतना रोष | हम अपनी ही माता की एक कड़ी बात नहीं सह सकते, इस आत्माभिमान का कोई ठिकाना है। यही वे अाशाएँ हैं, जिनपर माता ने अपने जीवन के सारे सुख-विलास अर्पण कर दिये थे, दिन का चैन और रात की नींद अपने ऊपर हराम कर ली थी ! पुत्र पर माता का इतना भी अधिकार नहीं ! अानद ने उसी अविचलित कठोरता से कहा- अगर मुहब्बत का यही अर्थ है कि मैं इस घर में तुम्हारी दुर्गति कराऊँ, तो मुझे वह मुहब्बत नहीं है। प्रातःकाल वह उठकर बाहर जाते हुए मुझसे बोले-मैं जाकर घर ठीक • किये आता हूँ। तांगा भी लेता श्राऊँगा, तैयार रहना । मैंने दरवाजा रोककर कहा-क्या अभी तक क्रोध शात नहीं हुआ? 'क्रोध की बात नहीं, केवल दूसरों के सिर से अपना बोझ हटा लेने की बात है। 'यह अच्छा काम नहीं कर रहे हो। सोचो, माताजी को कितना दुःख होगा । ससुरजी से भी तुमने कुछ पूछा ?