दो सखियाँ २६३ इस समय अपने असल में जितनी उमंग, जितने अानंद का अनुभव कर रही हूँ, याद नहीं आता कि विनोद के हृदय से लिपटकर भी कभी पाया हो । तब पर्दा बीच में था, अब कोई पर्दा बीच में नहीं रहा । मैं उनको प्रचलित प्रम. व्यापार की कसौटी पर कसना चाहती थी। यह फैशन हो गया है कि पुरुष घर में आये, तो स्त्री के वास्ते कोई तोहफा लाथे, पुरुष रात-दिन स्त्री के लिए गहने बनवाने, कपड़े सिलवाने, वेल, फीते, लेस खरीदने मे मस्त रहे, फिर स्त्री को उसमे कोई शिकायत नहीं, वह आदर्श-पति है, उसके प्रेम में किसे संदेह हो सकता है । लेकिन उसी प्रयसी की मृत्यु के तीसरे महीने वह फिर नया विवाह रचाता है। स्त्री के साथ अपने प्रम को भी चिता में जला आता है । फिर वही स्वांग इस नई प्रयसी से होने लगते हैं, फिर वही लीला शुरू हो जाती है । मैंने यही प्रम देखा था और इसी कसौटी पर विनोद को कस रही थी। कितनी मदबुद्धि हूँ। छिछोरेपन को प्रेम समझे बैठी थी। कितनी स्त्रिया जानती हैं कि अधिकाश ऐसे ही गहने कपड़े और हँसने-बोलने में मस्त रहनेवाले जीव लॅपट होते हैं । अपनी लपटता को छिपाने के लिए वे यह स्वांग भरते रहते हैं । कुत्त' को चुप रखने के लिए उनके सामने हड्डी के टुकड़े फेक देते हैं। वेचारी भोली-भाली स्त्री अपना सर्वस्व देकर खिलौने पाती है और उन्हीं में मग्न रहती है। मैं विनोद को उसी काटे पर तौल रही थी-हीरे को साग के तराजू पर रखे देती थी। मैं जानती हूँ, मेरा दृढ विश्वास है, और वह अटल है कि विनोद की दृष्टि कभी किसी परस्त्री पर नहीं पड़ सकती, उनके लिए मैं हूँ, अकेली मैं हूँ, अच्छी या बुरी हूँ ! बहन, मेरी तो मारे गर्व और आनद के छाती फूल उठी है । इतना बड़ा साम्राज्य, इतना अचल, इतना स्वरक्षित, किसी हृदयेश्वरी को नसीब हुआ है ! मुझे तो सदेह है । और मैं इसपर भी असंतुष्ट थो, यह न जानती थी कि ऊपर बघूले तैरते हैं, मोती समुद्र की तह में ही मिलते हैं । हाय ! मेरी इस मूर्खता के कारण, मेरे प्यारे विनोद को कितनी मानसिक वेदना हो रही है। मेरे जीवनधन, मेरे जीवनसर्वस्व न जाने कहाँ मारे-मारे फिरते होंगे, न जाने किस दशा में होंगे, न जाने मेरे प्रति उनके मन में कैसी-कैसी शंकाएँ उठ रही होंगी-प्यारे ! तुमने मेरे साथ कुछ अन्याय नहीं किया । अगर मैने तुम्हें निष्ठुर समझा, तो
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