पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२६०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. दो सखियाँ २६१ स्त्री और पुरुष में मैं वही प्रम चाहता हूँ, जो दो साधानतिया में होता है, वह प्रम नहीं, जिसका अाधार पराधीनता है । नस, अब और कुछ न लिखू गा। तुमको एक चेतावनी देने की इच्छा हो रही है, पर दूंगा नहीं; क्योंकि तुम अपना भला और बुरा खुद समझ सकती हो । तुमने सलाह देने का हक मुझसे छीन लिया है। फिर भी इतना कहे बगैर नहीं रहा जाता कि ससार में प्रम का स्वांग भरनेवाले शोहदो की कमी नहीं है, उनसे बचकर रहना । ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि तुम जहाँ रहो, आनद से रहो। अगर कभी तुम्हें मेरी जरूरत पड़े, तो याद करना । तुम्हारी एक तस्वीर का अपहरण किये जाता हूँ | क्षमा वरना । क्या मेरा इतना अधिकार भी नहीं। हाय । जी चाहता है, एक बार फिर देख आऊँ, मगर नहीं पाऊँगा।" -तुम्हारा ठुकराया हुआ विनोद बहन, यह पत्र पढ़कर मेरे चित्त की जो दशा हुई, उसका तुम अनुमान कर सकती हो । रोई तो नहीं, पर दिल बैठा जाता था । वार-बार जी चाहता था कि विप खाकर सो रहूँ। १० बजने में अब थोड़ी ही देर थी। मै तुरत विद्यालय गई और दर्शन-विभाग के अध्यक्ष को विनोद का पत्र दिया। वह एक मदरासी सजन है । मुझे बडे आदर से बिठाया और पत्र पढ़कर ब ले- आपको मालूम है, वह कहाँ गये और कब तक श्रायेगे । इसमें तो केवल एक मास की छुट्टी मांगी गई है । मैंने वहाना किया - वह एक अावश्यक कार्य से काशी गये है । और निराश होकर लौट आई । मेर। अतरात्मा सहस्रों जिह्वा बनकर मुझे धिक्कार रही थी। कमरे में उनकी तस्वीर के सामने घुटने टेककर मैंने जितने पश्चात्ताप-पूर्ण शब्दो में क्षमा मांगी है, यह अगर किसी तरह उनके कानों तक पहुँच सकती, तो उन्हें मालूम होता कि उन्हें मेरी पार से कितना भ्रम हुमा! तबसे अब तक मैंने कुछ भोजन नहीं किया और न एक मिनट साई । विनोद मेरी क्षुधा और निद्रा भी अपने साथ लेते गये और शायद इसी तरह दस पांच दिन उनकी खबर न मिली, तो प्राण भी चले जायेंगे। आज मैं वैक तक गई थी, पर यह पूछने की हिम्मत न पड़ी कि विनोद का कोई पत्र अाया। वह सब क्या सोचते कि यह उनकी पत्नी होकर हमसे पूछने आई है ! १७