पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२५९

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२६० मानसरोवर सुख के मार्ग में बाधा नहीं डालना चाहता। मैं कहीं भागकर नहीं जा रहा हूँ। केवल तुम्हारे रास्ते से हटा जा रहा हूँ और इतनी दूर हटा जा रहा हूँ कि तुम्हें मेरी ओर से पूरी निश्चितता हो जाय । अगर मेरे बगैर तुम्हारा जीवन अधिक सुंदर हो सकता है, तो मैं तुम्हें ज़बरन नहीं रखना चाहता। अगर मैं समझता कि तुम मेरे सुख के मार्ग में बाधक हो रही हो, तो मैंने तुमसे साफ- साफ़ कह दिया होता। मैं धर्म और नीति का ढोग नहीं मानता, केवल प्रात्मा का सतोष चाहता हूँ, अपने लिए भी, तुम्हारे लिए भी । जीवन का तत्त्व यही है, मूल्य यही है। मैंने डेस्क में अपने विभाग के अध्यक्ष के नाम एक पत्र लिखकर रख दिया है। वह उनके पास भेज देना । रुपये की कोई चिंता मत करना । मेरे एकाउट में अभी इतने रुपये हैं, जो तुम्हारे लिए कई महीने को काफी हैं, और उस वक्त तक मिलते रहेंगे, जब तक तुम लेना चाहोगी। मैं समझता हूँ, मैंने अपना भाव स्पष्ट कर दिया है। इससे अधिक स्पष्ट मै नहीं करना चाहता। जिस वक्त तुम्हारी इच्छा मुझसे मिलने की हो, बैक से मेरा लेना । मगर दो-चार दिन के बाद । घबड़ाने की कोई बात नहीं। मै स्त्री को अबला या अपग नहीं समझता । वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकती है--अगर करना चाहे । अगर अब या अब से २ ४ महीना, २-४ साल पं.छे तुम्हे मेरी याद आये, तुम समझो कि मेरे साथ सुखी रह सकती हो, तो मुझे केवल दो शब्द लिखकर डाल देना। मैं तुरत श्रा जाऊँगा। क्योकि मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है । तुम्हारे साथ मेरे जीवन के जितने दिन कटे हैं, वह मेरे लिए स्वर्ग स्वप्न के दिन हैं। जब तक जिऊँगा इस जीवन की श्रानंदस्मृतियो को हृदय मे संचित रखू गा । आह ! इतनी देर तक मन को रोके रहने के बाद आँखो से एक बूंद अासू गिर ही पड़ा। क्षमा करना, तुम्हें 'चंचल' कहा है । अचचल कौन है ? जनता हूँ कि तुमने मुझे अपने हृदय से निकालकर फेक दिया है, फिर भी इस एक घटे में कितनी बार तुमको देख-देखकर लौट आया हूँ। मगर इन बातों को लिखकर मै तुम्हारी दया को उकसाना नहीं चाहता, तुमने वही किया, जिसका मेरी नीति में तुमको अधि- कार था, है, और रहेगा। मैं विवाह में आत्मा को सर्वोपरि रखना चाहता हूँ। पता पूछ ,