पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२५६

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दो सखियाँ २५७ (११) देहली ५-२-२६ प्यारी चदा-क्या लिखू, मुझपर तो विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा! हाय वह चले गये, मेरे विनोद का तीन दिन से पता नहीं-निर्मोही चला गया, मुझे छोड़कर बिना कुछ कहे-सुने चला गया-अभी तक रोई नहीं, जो लोग पूछने आते हैं, उनसे बहाना कर देती हूँ कि दो-चार दिन में आयेंगे, एक काम से काशी गये हैं। मगर जब रोऊँगी, तो यह शरीर उन आँसुओं में डूब जायेगा, प्राण उसी मे विसर्जित हो जायेंगे। छलिये ने मुझसे कुछ भी नही कहा, रोज़ की तरह उठा, भोजन किया, विद्यालय गया, नियत समय पर रोज़ की तरह मुसकिराकर मेरे पास आया, हम दोनो ने जल-पान किया, फिर वह दैनिक पत्र पढ़ने लगा, मैं टेनिस खेलने चली गई। इधर कुछ दिनों से उन्हें टेनिस से कुछ प्रम न रहा था, मैं अकेली ही जाती थी। लौटी, तो रोज़ ही की तरह उन्हें बरामदे में टहलते और सिगार पीते देखा। मुझे देखते ही वह रोज़ की तरह मेरा ओवरकोट लाये और मेरे ऊपर डाल दिया। बरामदे से नीचे उतरकर खुले मैदान में हम टहलने लगे। मगर वह ज्यादा बोले नहीं, किसी विचार मे डूबे रहे । जब अोस अधिक पड़ने लगी, तो हम दोनों फिर अंदर चले आये। उसी वक्त वह बंगाली महिला आ गई, जिनसे मैंने वीणा सीखना शुरू किया है। विनोद भी मेरे साथ ही बैठे रहे । सगीत उन्हें कितना प्रिय है, यह तुम्हें लिख चुकी हूँ। कोई नई बात नहीं हुई। महिला के चले जाने के बाद हमने साथ-ही-साथ भोजन किया, फिर मैं अपने कमरे में लेटने आई, वह रोज़ की तरह अपने कमरे में लिखने-पढ़ने चले गये। मैं जल्द ही सो गई, लेकिन जब वह मेरे कमरे में आये, तो मेरी आँख खुल गई । मैं नींद में कितनी बेख़बर पड़ी रहूँ, उनकी आहट पाते ही श्राप-ही-आप आँखे खुल जाती हैं। मैंने देखा, वह अपना हरा शाल ओढ़े खड़े थे। मैंने उनकी ओर हाथ बढ़ाकर कहा-आओ, खड़े क्यों हो, और फिर सो गई । बस, प्यारी बहन ! वही विनोद के अंतिम दर्शन थे। कह नहीं, सकती, वह पलंग पर लेटे या नहीं। इन आँखों मे न जाने कौन-सी महा--