२५२१ मानसरोवर तो ऐसा श्राता है कि एक बार झिड़क दूं, लेकिन मन को समझाकर रोक लेती हूँ। यह दशा बहुत दिनों नहीं रहेगी। एक नये आदमी से कुछ हिचक होना स्वाभाविक ही है, विशेषकर जब वह नया आदमी शिक्षा और विचार- व्यवहार में हमसे अलग हो । मुझी को अगर किसी फ्रच लेडी के साथ रहना पड़े तो शायद मैं भी उसकी हरएक बात को आलोचना और कुतूहल की दृष्टि से देखने लगें । यह काशी-वासी लोग पूजा-पाठ बहुत करते हैं । सासजी तो रोज़ गंगा-स्नान करने जाती हैं। बड़ी ननदजी भी उनके साथ जाती हैं। मैंने कभी पूजा नहीं की। याद है, हम और तुम पूजा करनेवालों को कितना बनाया करती थीं। अगर मैं पूजा करनेवालों का चरित्र कुछ उन्नत पाती, तो शायद अब तक मैं भी पूजा करती होती । लेकिन मुझे तो कभी ऐसा अनुभव प्राप्त नहीं हुआ । पूजा करनेवालियां भी उसी तरह दूसरों की निंदा करती हैं, उसी तरह आपस में लड़ती-झगड़ती हैं, जैसे वे जो कभी पूजा नहीं करतीं। खैर, अब मुझे धीरे-धीरे पूजा से श्रद्धा होती जा रही है। मेरे ददिया ससुरजी ने एक छोटा-सा ठाकुरद्वारा बनवा दिया था। वह मेरे घर के सामने ही हैं । मैं अक्सर सासजी के साथ वहाँ जाती हूँ, और अब यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि उन विशाल मूर्तियों के दर्शन से मुझे अपने अंतस्तल में एक ज्योति का अनुभव होता है। जितनी श्रद्धा से मैं राम और कृष्ण के जीवन की आलोचना किया करती थी, वह बहुत कुछ मिट चुकी है । लेकिन रूपवती होने का दंड यहीं तक बस नहीं है । ननदें अगर मेरे रूप को देखकर जलती हैं, तो यह स्वभाविक है । दुख तो इस बात का है कि यह दंड मुझे उस तरफ से भी मिल रहा है, जिधर से इसकी कोई संभावना न, हेनी चाहिए-मेरे अानंद बाबू भी मुझे इसका दड दे रहे हैं। हां, उनकी दंडनीति एक निराले ही ढंग की है। वह मेरे पास नित्य ही कोई न कोई सौगात लाते रहते हैं । वह जितनी देर मेरे पास रहते हैं, उनके मन में यह संदेह होता रहता है कि मुझे उनका रहना अच्छा नहीं लगता। वह समझते हैं कि मैं उनसे जो प्रेम करती हूँ, यह केवल दिखावा है, कौशल है । वह मेरे सामने कुछ ऐसे दबे-दबाये, सिमटे सिमटाये रहते हैं कि मैं मारे लजा के मर जाती हूँ। उन्हें मुझसे कुछ कहते हुए, ऐसा संकोच होता है मानो वह कोई
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