पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२५०

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२५१० दो सखियाँ कुछ सेवा कर सकूँ, इससे बढकर मेरे लिए सौभाग्य की और क्या बात होगी। मैं केवल इतना ही चाहती हूँ कि मुझसे हँसकर बोले, मगर न जाने क्यों वह बात-बात पर मुझे कोसने दिया करती हैं । मैं जानती हूँ, दोष मेरा ही है, हो, मुझे मालूम नहीं वह क्या है। अगर मेरा यही अपराध है कि मैं अपनी दोनो ननदों से रूपवती क्यों हूँ, पढ़ी-लिखी क्यों हूँ, आनंद क्यों मुझे इतना चाहते हैं, तो बहन यह मेरे बस की बात नहीं। मेरे प्रति सासजी का यह व्यवहार देखकर ही कदाचित् अानद माताजी से कुछ खिंचे रहते हैं । सासजी को भ्रम होता होगा कि मैं ही आनद को भरमा रही हूँ। शायद वह पछताती हैं कि क्यों मुझे बहू बनाया । उन्हे भय होता है कि कहीं मैं उनके वेटे को उनसे छीन न लें । दो-एक बार मुझे जादूगरनी कह चुकी हैं। दोनों ननदे अकारण ही मुझसे जलती रहती हैं। बड़ी ननदजी तो विधवा हो गई हैं, उनका जलना समझ में आता है, लेकिन छोटी ननदजी तो अभी कलोर हैं, उनका जलना मेरी समझ मे नहीं आता। मै उनकी जगह होती, तो अपनी भावज से कुछ सीखने की, कुछ पढ़ने की कोशिश करती, उनके चरण धो धोकर पीती। पर इस छोकरी को मेरा अपमान करने ही मे आनद आता है । मै जानती हूँ, थोड़े दिनो मे दोनों ननदे लाजत होंगी। हाँ, अभी वे मुझसे बिचकती हैं । मैं अपनी तरफ से उन्हें अप्रसन्न होने का कोई अवसर नहीं देती। मगर रूप को क्या करूँ। क्या जानती थी कि एक दिन इस रूप के , कारण मैं अपराधिनी ठहराई जाऊँगी। मैं सच कहती हूँ बहन, यहाँ मैंने सिगार करना एक तरह से छोड़ ही दिया है। मैली-कुचैली बनी बैठी रहती हूँ। इस भय से कि कोई मेरे पढ़ने-लिखने पर नाक न सिकोड़े, पुस्तकों को हाथ नहीं लगाती । घर से पुस्तकों का एक गट्ठर बाँध लाई थी। उनमे कई पुस्तके बड़ी सुदर हैं । उन्हें पढ़ने के लिए बार-बार जी चाहता है, मगर डरती हूँ कि कोई ताना न दे बैठे। दोनों ननदे मुझे देखती रहती हैं कि यह क्या करती है, कैसे बैठती है, कैसे बोलती है, मानो दो-दों जासूस मेरे पीछे लगा दिये गये हों। इन दोनों महिलाओं को मेरी बदगोई में क्यों इतना मज़ा आता है, नहीं कह सकती। शायद अाजकल उन्हें इसके सिवा दूसरा काम ही नहीं। गुस्सा