पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२४९

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- २५० मानसरोवर हो । हाय ! उस गरीब के साथ तुम कितना भयंकर अन्याय कर रही हो। तुम यह क्यों समझती हो कि विनोद तुम्हारी उपेक्षा कर रहे हैं, अपने विचारों में इतने मन हैं कि उन्हें तुम्हारी परवा ही नहीं। यह क्यों नहीं सम- झतीं कि उन्हें कोई मानसिक चिता सताया करती है, उन्हें कोई ऐसी फ़िक घेरे हुए हैं कि जीवन के साधारण व्यापारो में उनकी रुचि ही नहीं रही। संभव है, वह कोई दार्शनिक तत्त्व खोज रहे हों, कोई थीसिस लिख रहे हों, किसी पुस्तक की रचना कर रहे हों । कौन कह सकता है ? तुम जैसो रूपवती स्त्री पाकर यदि कोई मनुष्य चिंतित रहे, तो समझ लो उसके दिल पर कोई बड़ा बोझ है । उनको तुम्हारी सहानुभूति की ज़रूरत है, तुम उनका बोझ हलका कर सकती हो। लेकिन तुम उलटे उन्हीं को दोष देती हो । मेरी समझ में नहीं आता कि तुम एक दिन क्यों विनोद से दिल खोलकर बाते नहीं कर लेतीं। सदेह को जितनी जल्द हो सके; निकाल डालना चाहिए । सदेह वह चोट है, जिसका उपचार जल्द न हो, तो नासूर पड़ जाता है और फिर अच्छा नहीं होता। क्यों दो-चार दिनों के लिए यहाँ नहीं चली आती ? तुम शायद कहो, तू ही क्यो नहीं चली आती । लेकिन मैं स्वतत्र नहीं हूँ, बिना सास-ससुर से पूछे कोई काम नहीं कर सकती। तुम्हें तो कोई बधन नहीं है। बहन, अाजकल मेरा जीवन हर्ष और शोक का विचित्र मिश्रण हो रहा हैं। अकेली होती हूँ तो रोती हूँ, आनद आ जाते हैं तो हँसती हूँ। जी चाहता है, वह हर दम मेरे सामने बैठे रहते । लेकिन रात के बारह बजे के पहले उनके दर्शन नहीं होते । एक दिन दोपहर को आ गये तो सासजी ने ऐसा डाटा कि कोई बच्चे को क्या डांटेगा। मुझे ऐसा भय हो रहा है कि सासजी को मुझसे चिढ है। बहन, मैं उन्हें भरसक प्रसन्न रखने की चेष्टा करती हूँ। जो काम कभी न किये थे, वह उनके लिए करती हूँ, उनके स्नान के लिए पानी गर्म करती हूँ, उनकी पूजा के लिए चौकी बिछाती हूँ। वह स्नान कर लेती हैं, तो उनकी धोतो छोटती हूँ, वह लेटती हैं, तो उनके पैर दबाती हूँ, जब वह सो जाती हैं तो उन्हें पंखा झलती हूँ ! वह मेरी माता है, उन्हीं के गर्भ से वह, रत्न उत्पन्न हुअा है, जो मेरा प्राणाधार है। मैं उनकी