पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२४४

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दो सखियाँ २४५ विजय पा सकता है, मेरे ही हृदय पर नहीं, नारी-जाति ( मेरे विचार में) ऐसे ही पुरुष पर जान देती है। वह निर्बल है, इसलिए बलवान् का आश्रय हूँढ़ती है। बहन, तुम ऊब गई होगी, खत बहुत लबा हो गया मगर इस काड को समाप्त किए बिना नहीं रहा जाता। मैंने सबेरे ही से भुवन की दावत की तैयारी शुरू कर दी। रसोइया तो काठ का उल्लू है, मैंने सारा काम अपने हाथ से किया । भोजन बनाने में ऐसा आनद मुझे और कभी न मिला था। भुवन बाबू की कार ठीक समय पर आ पहुँची । भुवन उतरे और सीधे मेरे कमरे में आये । दो-चार बातें हुई। डिनर टेबुल पर जा बैठे। विनोद भी भोजन करने आये। मैंने उन दोनों आदमियो का परिचय करा दिया। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि विनोद ने भुवन की ओर से कुछ उदासीनता दिखाई । इन्हें राजाओं-रईसों से चिढ है, साम्यवादी है, जब राजाओं से चिढ़ है तो उनके पिठुओं से क्यों न होता। वह समझते हैं इन रईसो के दरवार में खुशामदी, निकम्मे, सिद्धात-हीन, चरित्र-हीन लोगों का जमघट रहता है, जिनका इसके सिवाय और कोई काम नहीं कि अपने रईस की हरएक उचित अनुचित इच्छा पूरी करें और प्रजा का गला काटकर अपना घर भरे । भोजन के समय वातचीत की धारा घूमते-घामते विवाह और प्रम-जैसे महत्व के विषय पर आ पहुंची। विनोद ने कहा-'नहीं, मैं वर्तमान वैवाहिक प्रथा को पसद नहीं करता। इस प्रथा का आविष्कार उस समय हुआ था जब मनुष्य सभ्यता की प्रारभिक दशा में था। तब से दुनिया बहुत आगे बढ़ी है। मगर विवाह प्रथा मे जौ भर भी अतर नहीं पड़ा । यह प्रथा वर्तमान काल के लिये उपयोगी नहीं, भुवन ने कहा---'पाखिर आपको इसमे क्या दोष दिखाई देते हैं ? विनोद ने विचारकर कहा--'इसमें सबसे बड़ा ऐत्र यह है कि यह एक सामाजिक प्रश्न को धार्मिक रूप दे देता है।' 'और दूसरा ? 'दूसरा यह कि यह व्यक्तियो की स्वाधीनता में बाधक है । यह स्त्रीव्रत और पातिव्रत्य का स्वांग रचकर हमारी आत्मा को संकुचित कर देता है। , "