पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२३८

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दो सखियाँ २३९ - , एक दिन मैंने अँझलाकर रसोइये को निकाल दिया । सोचा, जब लाला रातभर भूखे सोयेगे तब आँखें खुलेगी। मगर इसे भले आदमी ने कुछ पूछा तक नहीं। चाय न मिली, कुछ परवा नहीं। ठीक दस बजे अपने कपड़े पहने, एक बार रसोई की ओर जाकर देखा, सन्नाटा था। बस कॉलेज चल दिये। एक श्रादमी पूछता है, महराज कहाँ गया, क्यो गया ; अब क्या इंतज़ाम होगा, कौन खाना पकायेगा, कम से कम इतना तो मुझसे कह सकते थे कि तुम अगर नहीं पका सकतीं, तो बाजार ही से कुछ खाना मॅगवा लो। जब वह चले गये, तो मुझे बड़ा पश्वात्ताप हुआ । रायल होटल से खाना मॅगवाया और बैरे के हाथ कॉलेज भेज दिया । पर खुद भूखी ही रही । दिन- भर भूख के मारे बुरा हाल था। सिर में दर्द होने लगा। श्राप कॉलेज से आये और मुझे पड़े देखा तो ऐसे परेशान हुए मानों मुझे त्रिदोष है। उसी वक्त एक डॉक्टर बुला भेजा। डॉक्टर आये, आँख देखी, जबान देखी, हरारत देखी, लगाने की दवा अलग दी, पीने की अलग। आदमी दवा लेने गया। लौटा तो १२) रुपये का बिल भी था। मुझे इन सारी बातों पर ऐसा क्रोध श्रा रहा था कि कहाँ भागकर चली जाऊँ। उसपर आप आराम-कुरसी डालकर मेरी चारपाई के पास बैठ गये और एक-एक पल पर पूछने लगे, कैसा जी है ? दर्द कुछ कम हुआ ? यहाँ मारे भूख के पाते कुलकुला रही थीं। दवा हाथ से छुई तक नहीं। आखिर झक मारकर मैंने फिर बैरे से खाना मँगवाया। फिर चाल उलटी पड़ी। मैं डरी कि कहीं सवेरे फिर यह महाशय डॉक्टर को न बुला बैठे, इसलिए सवेरा होते ही हारकर फिर घर के काम-धंधे में लगी। उसी वक्त एक दूसरा महराज बुलवाया। अपने पुराने महराज को बेकसूर निकालकर दडस्वरूप एक काठ के उल्लू को रखना' पड़ा जो मामूली चपातियां भी नहीं पका सकता। उस दिन से एक नई वला गले पड़ी। दोनों वक्त दो घंटे इस महराज को सिखाने मे लग जाते हैं । इसे अपनी पाक-कला का ऐसा घमंड है कि मैं चाहे जितना वकूँ, पर करता अपने ही मन की है। उसपर बीच-बीच में मुसकिराने लगता है, मानों कहता हो कि 'तुम इन बातों को क्या जानो, चुपचाप बैठी देखती जाव।" जलाने चली थी विनोद को, और खुद जल गई। रुपये खर्च हुए वह तो ---