पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२३२

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दो सखियाँ २३३ (८) काशी १२५-१२-२५ प्यारी पद्मा, तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे कुछ दुःख हुआ, हँसी आई, कुछ क्रोध पाया । तुम क्या चाहती हो, यह तुम्हें खुद नहीं मालूम । तुमने आदर्श पति पाया है, व्यर्थ को शंकात्रों से मन को अशात न करो। तुम स्वाधीनता चाहती थीं। वह तुम्हें मिल गई। दो श्रादमियों के लिए ३००) कम नहीं होते। उसपर अभी तुम्हारे पापा भी १००) दिये जाते हैं । अब और क्या चाहिए। मुझे भय होता है कि तुम्हारा चित्त कुछ अव्यवस्थित हो गया है। मेरे पास तुम्हारे लिए सहानुभूति का एक शब्द भी नहीं। मैं १५ तारीख़ को काशी आ गई। स्वामी स्वयं मुझे बिदा कराने गये थे। घर से चलते समय बहुत रोई। पहले मैं समझती थी कि लड़कियां झूठ- मूठ रोया करती हैं । फिर मेरे लिए तो माता-पिता का वियोग कोई नई बात न थी। गर्मी, दशहरा और बड़े दिन की छुट्टियो के बाद ६ सालों से इस वियोग का अनुभव कर रही हूँ। कभी आँखों मे श्रीसू न आते थे। सहेलियों से मिलने की खुशी होती थी। पर अबकी तो ऐसा जान पड़ता था कि कोई हृदय को खींचे लेता है। अम्माजी के गले लिपटकर तो मैं इतना रोई कि मुझे मूर्छा आ गई । पिताजी के पैरो पर लेटकर रोने की अभिलाषा मन में ही रह गई। हाय वह रुदन का आनद ! उस समय पिता के चरणों पर गिरकर रोने के लिए मैं अपने प्राण तक दे देती। यही रोना आता था कि मैने इनके लिए कुछ न किया। मेरा पालन-पोषण करने में इन्होंने क्या कुछ कष्ट न उठाया। मैं जन्म की रोगिणी हूँ। रोज़ ही बीमार रहती थी। अस्माजी रात-रात-भर मुझे गोद में लिये बैठी रह जाती थीं। पिताजी के कंधों पर चढकर उचकने की याद मुझे अभी तक आती है। उन्होंने कभी मुझे कड़ी निगाह से नहीं देखा। मेरे सिर में दर्द हुआ और उनके हाथों के तोते उड़ जाते थे। १० वर्ष की उम्र तक तो यो गये। ६ साल देहरादून में गुजरे । अब जब इस योग्य हुई कि उनकी कुछ सेवा करूँ, तो यों पर झाड़फर अलग हो गई। कुल ८ महीने तक उनके चरणों की सेवा कर सकी और