पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२३१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। . २३२ मानसरोवर चली गई । अब वह सिनेमा या थिएटर का नाम भी नहीं लेते। हाँ, मैं चलू तो वह तैयार हो जायेंगे । मैं चाहती हूँ, प्रस्ताव उनकी श्रोर से हो, मैं केवल उसका अनुमोदन करूँ। शायद अब वह पहले की आदत छोड़ रहे हैं । मैं तपस्या का संकल्प उनके मुख पर अकित पाती हूँ। जान पड़ता है, अपने में गृह-संचालन की शक्ति न पाकर उन्होंने सारा भार मुझपर डाल दिया है। मंसूरी में वह घर के संचालक थे। दो-ढाई महीने में १५ सौ खर्च किये। कहाँ से लाये, यह मैं अब तक नहीं जानती। पास तो शायद ही कुछ रहा - हो। संभव है, किसी मित्र से ले लिया हो । ३००) महीने की आमदनी में थिएटर और सिनेमा का ज़िक्र ही क्या । ५०) तो मकान ही के निकल जाते हैं। मैं इस जंजाल से तग आ गई हूँ। जी चाहता है, विनोद से कह दूँ, मेरे चलाये यह ठेला न चलेगा। आप तो दो-ढाई घटा युनिवर्सिटी मे काम करके दिन भर चैन करे, खूब टेनिस खेले, खूब उपन्यास पढ़े, खूब सोये और मैं सुबह से आधी रात तक घर के झझटों में मरा करूँ। कई बार छेड़ने का इरादा किया, दिल में ठानकर उनके पास गई भी, लेकिन उनका सामीप्य मेरे सारे संयम, सारी ग्लानि, सारी विरक्ति को हर लेता है । उनका विकसित मुख मंडल, उनके अनुरक्त-नेत्र, उनके कोमल शब्द मुझपर भोहिनी मंत्र सा डाल देते हैं। उनके एक श्रालिगन में मेरी सारी वेदना विलीन हो जाती है। बहुत अच्छा होता, अगर यह इतने रूपवान्, इतने मधुरभाषीं, इतने सौम्य न होते । तब कदाचित् मैं इनसे झगड़ बैठती, अपनी कठिनाइयों कह सकती। इस दशा में तो इन्होंने मुझे जैसे भेड़ बना लिया है। मगर इस माया को तोड़ने का मौका तलाश कर रही हूँ। एक तरह से मैं अपना अात्मसंमान, खो बैठी हूँ। मैं क्यो हरएक बात में किसी की अप्रसन्नता से डरती रहती हूँ, मुझमें क्यों नहीं वह भाव आता कि जो कुछ मैं कर रही हूँ, वह ठीक है। मै इतनी मुखापेक्षा क्यों करती हूँ ! इस मनो- वृत्ति पर मुझे विजय पाना है, चाहे जो कुछ हो। अब इस वक्त बिदा होती हूँ, अपने यहाँ के समाचार लिखना, जी लगा है। तुम्हारी पमा