दो सखियाँ २२३ ( ४ ) गोरखपुर १.६२५ प्यारी पमा, तुम्हारा पत्र पढ़कर चित्त को बडी शाति मिली। तुम्हारे न श्राने ही से मैं समझ गई थी कि विनोद बाबू तुम्हें हर ले गये, मगर यह न समझी थी कि तुम मसूरी पहुंच गई। अब उस आमोद-प्रमोद में भला गरीक चंदा तुम्हें क्यों याद आने लगी। अब मेरी समझ में आ रहा है कि विवाह के नये और पुराने आदर्श में क्या अतर है। तुमने अपनी पसद से काम लिया, सुखी हो । मैं लोकलाज की दासी बनी रही, नमीबों को रो रही हूँ। अच्छा, अब मेरी बीती सुनो। दान-दहेज के टटे से तो मुझे कुछ मत- लब नहीं। पिताजी ने बड़ा ही उदार हृदय पाया है। खूब दिल खोलकर दिया होगा। मगर द्वार पर बारात आते ही मेरी अमि परीक्षा शुरू हो गई। कितनी उत्कठा थी वरदर्शन की, पर देखू कैसे । कुल की नाक न कट जायगी। द्वार पर बारात आई। सारा जमाना वर को घेरे हुए था। मैंने सोचा-छत पर से देखू । छत पर गई, पर वहां से भी कुछ न दिखाई दिया। हाँ, इस अपराध के लिए 'अम्माजी की घुडकियों सुननी पड़ा। मेरी जो बात इन लोगों को अच्छी नहीं लगती, उसका दोष मेरी शिक्षा के माथे मढ़ा जाता है। पिताजी बेचारे मेरे साथ बड़ी सहानुभूति रखते हैं। मगर किस-किसका मुंह पकड़ें। द्वारचार तो यो गुजरा। और भांवरों की तैयारियां होने लगी। जनवासे से गहनो और कपड़ों का डाल पाया। बहन ! सारा घर-स्त्री पुरुप-सब उसपर कुछ इस तरह टूटे, मानो हन लोगों ने कभी कुछ देखा ही नहीं। कोई कहता है कठा तो लाये हो नहीं, कोई हार के नाम को रोता है। अम्माजी तो सचमुच रोने लगी, मानो में डुवा दी गई। वर पक्षवालों की दिल खोलकर निंदा होने लगी। मगर मैंने गहनों की तरफ श्रीख उठाकर भी नहीं देखा। हाँ, जब कोई वर के विषय में कोई बात करता था, तो मैं तन्मय होकर सुनने लगती थी। मालूम हुआ-दुबले-पतले आदमी हैं। रंग सावला है, आँखे बड़ी-बड़ी हैं, हँसमुख हैं। इन सूचनाओं से दर्श- नोत्कंठा और भी प्रबल होती थी। भावरों का मुहूर्त ज्यों-ज्यों समीप आता 4 ।
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