२१२ मानसरोवर होता है, मनों मटर, जुवार, चने होते हैं, लेछिन इसकी कभी इतनी हिम्मत न हुई कि कभी थोड़ा-सा दफ्तरवालों को भी दे दे,। यहाँ इन चीज़ो को तरस- के रह जाते हैं । तो फिर क्यों न जी जले ! और यह सब कुछ इसी नौकरी की बदौलत हुआ है। नहीं तो पहले इसके घर में भूनी भांग भी न थी। बड़े बाबू कुछ सकुचाकर बोले-यह कोई बात नहीं, उसकी चीज़ है, किसी को दे या न दे, लेकिन यह बिल्कुल पशु है । कुछ-कुछ मर्म समझ गया । बोला-यदि ऐसे तुच्छ हृदय का श्रादमी है, तो वास्तव में पशु ही है । मैं यह न जानता था। अब बड़े बाबू भी खुले । संकोच दूर हुआ । बोले-इन सौगातों से किसी का उबार तो होता नहीं, केवल देनेवाले की सहृदयता प्रकट होती है। और श्राशा भी उसी से की जाती है जो इस योग्य है। जिसमें सामर्थ्य ही नहीं उससे कोई पाशा नहीं करता । नगे से कोई क्या लेगा। रहस्य खुल गया | बड़े बाबू ने सरल भाव से सारी अवस्था दरसा दी थी । समृद्धि के शत्रु सब होते हैं, छोटे ही नहीं, बड़े भी। हमारी ससुराल या ननिहाल दरिद्र हो तो हम उससे अाशा नहीं रखते। कदाचित् वह हमे विस्मृत हो जाती है । किंतु वे सामर्थ्यवान् होकर हमें न पूछे, हमारे यहाँ तीज और चौथ न भेजे तो हमारे कलेजे पर सॉप लोटने लगता है। हम अपने निर्धन मित्र के पास जाय, तो उसके एक बीड़े पान से ही संतुष्ट हो जाते हैं, पर ऐसा कौन मनुष्य है जो अपने किसी धनी मित्र के घर से बिना जलपान के लौटकर उसे मन में कोसने न लगे और सदा के लिए उसका तिरस्कार न करने लगे। सुदामा कृष्ण के घर से यदि निराश लौटते, तो कदाचित् वह उनके शिशुपाल और जरासंध से भी बड़े शत्रु होते। यह मानव-स्वभाव है। [३] कई दिन पीछे मैंने गरीब से पूछा-क्योंजी, तुम्हारे घर कुछ खेती-बारी होती है ? गरीब ने दीन-भाव से कहा- हां, सरकार होती है। आपके दो गुलाम है, वही करते हैं।
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