पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/२०४

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सभ्यता का रहस्य २०५ ऐसे श्रादमियों पर दया करना भी पाप है । ( मेरी तरफ फिरकर ) क्यों मुशीजी, इस पागलपन का भी कोई इलाज है ? जाड़ों मर रहे हैं, पर दरवाजे पर ज़रूर बांधेगे। मैंने कहा-जनाब, यह तो अपनी-अपनी समझ है । राय साहब-ऐसी समझ को दूर से सलाम कीजिए। मेरे यहाँ कई पुश्तों से जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता था। कई हजार रुपयों पर पानी फिर जाता था । गाना होता था , दावते होती थीं, रिस्तेदारो को न्योते दिये जाते थे, गरीबों को कपड़े बांटे जाते थे । वालिद साहेब के बाद पहले ही साल मैंने उत्सव बद कर दिया। फायदा क्या ! मुफ्त में चार-पांच हज़ार की चपत पड़ती थी। सारे कसबे मे वावेला मचा, आवाजे कसी गई ; किसी ने नास्तिक कहा, किसी ने ईसाई बनाया; लेकिन यहाँ इन बातों की क्या परवा | आखिर थोड़े दिनों में सारा कोलाहल शात हो गया। अजी बड़ो दिल्लगी थी। कसबे में किसी के यहाँ शादी हो, लकड़ी मुझमे ले ! पुश्तों से यह रस्म चली आती थी। वालिद तो दूसरों से दरख्न मोल लेकर इस रस्म को निभाते थे। थी हिमाकत या नहीं 2 मैंने फौरन लकड़ी देना बद कर दिया। इसपर भी लोग बहुत रोये-धोये, लेकिन दूसरों का रोना-धोना सुनें या अपना फ़ायदा देखू । लकड़ी से ही कम-से कम ५००) सालाना की बचत हो गई। अब कोई भूनकर भी इन चीजों के लिए मुझे दिक करने नहीं आता। . मेरे दिल में फिर सवाल पैदा हुअा, दोनों मे कौन सभ्य है, कुल-प्रतिष्ठा पर प्राण देनेवाला मूर्ख दमड़ी, या धन पर कुल-मर्यादा को बलि देनेवाले राय रतनकिशोर ? राय साहब के इजलास मे एक बड़े मार्के का मुकदमा पेश था। शहर का एक रईस खून के मामले में फंस गया था। उसकी जमानत लेने के लिए राय साहब की खुशामदे होने लगीं। इज्जत की बात थी। रईस साहब का हुक्म था कि चाहे रियासत बिक जाय, पर इस मुकदमे से बेदाग़ निकल जाऊँ। डालियां लगाई गई, सिफारिशें पहुंचाई गई , पर राय साहब पर कोई असर