सद्गति
आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर पाटा, आध सेर चावल, पाव भर दाल,
आध पाव घी, नोन, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख
देना। गोंड़ की लड़की न मिले तो भुर्जिन के हाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तू
कुछ मत छूना, नहीं गजब हो जायगा।
इन बातों की ताकीद करके दुखी ने लकड़ी उठाई, और घास का एक बड़ा सा गट्ठा लेकर पडितजी से अर्ज़ करने चला। ख़ाली हाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता। नज़राने के लिए उसके पास घास के सिवाय और क्या था। उसे खाली हाथ देखकर तो बाबा दूर ही से दुत्कारते।
( २ )
पडित घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे। नींद खुलते ही ईशोपासन में लग जाते। मुॅह-हाथ धोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला भाग भंग की तैयारी थी। उसके बाद आध घटे तक चदन रगड़ते, फिर आइने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चदन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोरी की बिंदी होती थी। फिर छाती पर, बाहो पर चदन की गोल-गोल मुद्रिकाएँ बनाते। फिर ठाकुरजी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चदन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घटी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भग छानकर बाहर आते। तब तक दो- चार जजमान द्वार पर आ जाते। ईशोपासन का तत्काल फल मिल जाता। यही उनकी खेती थी।
आज वह पूजन-गृह से निकले, तो देखा दुखी चमार घास का एक गट्ठा लिये बैठा है। दुखी उन्हें देखते ही उठ खडा हुआ और उन्हें साष्टाग दड- वत् करके हाथ बांधकर खड़ा हुआ। यह तेजस्वी मूर्ति देखकर उसका हृदय श्रद्धा से परिपूर्ण हो गया। कितनी दिव्य मूर्ति थी। छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, चिकना सिर, फूले गाल, ब्रह्मतेज से प्रदीप्त आंखे। रोरी और चदन देवताओं की प्रतिभा प्रदान कर रही थी। दुखी को देखकर श्रीमुख से बोले -- आज कैसे चला रे दुखिया?
दुखी ने सिर झुकाकर कहा -- बिटिया की सगाई कर रहा हूॅ महाराज।
कुछ साइत-सगुन बिचारना है। कब मर्जी होगी?