सवा सेर गेहूँ १६६ निराशा के रूप में परिणत हो गया। उसने समझ लिया कि जब इतना कष्ट सहने पर भी सालभर मे ६० से अधिक न जमा कर सका, तो अब और कौन सा उपाय है जिसके द्वारा इसके दूने रुपये जमा हों। जब सिर पर ऋण का बोझ ही लदना है तो क्या मन भर का और क्या सवा मन का। उसका उत्साह क्षीण हो गया, मिहनत से घृणा हो गई । श्राशा उत्साह की जननी है, आशा में तेज है, बल है, जीवन है। अाशा ही संसार की संचालक शक्ति हैं । शंकर पाशाहीन होकर उदासीन हो गया । वह जरूरतें, जिनको उसने साल भर तक टाल रखा था, अब द्वार खड़ी होनेवाली मिखारिणी न थी, बल्कि छाती पर सवार होनेवाली पिशाचनियाँ थीं जो अपनी भेट लिये बिना जान नहीं छोडतीं। कपड़ों मे चकत्तियों के लगने की भी एक सीमा होती है । अब शकर को चिट्ठा मिलता तो वह रुपये जमा न करता, कभी कपडे लाता, कभी खाने की कोई वस्तु । जहाँ पहले तमाखू ही पिया करता था वहीं अब गाँजे और चरस का चस्का भी लगा। उसे अब रुपये अदा करने की कोई चिंता न थी मानों उसके ऊपर किसी का एक पैसा भी नहीं पाता । पहले जूडी चढी होती थी पर वह काम करने अवश्य जाता था, अब काम पर न जाने के लिए बहाना खोजा करता। इस भाँति तीन वर्ष निकल गये । विप्रजी महाराज ने एक बार भी तकाजा न किया। वह चतुर शिकारी की भांति अचूक निशाना लगाना चाहते थे। पहले से शिकार को चौकाना उनकी नीति के विरुद्ध था। एक दिन पडितजी ने कर को बुलाकर हिसाब दिखाया । ६०) जो जमा थे वह मिनहा करने पर अब भी शकर के जिम्मे शकर-इतने रुपये तो उसी जन्म मे दूगा, इस जन्म में नहीं हो सकते। विप्र--मैं इसी जन्म में लूगा । मूल न सही, सूद तो देना ही पडेगा। शंकर- एक बैल है वह ले लीजिए, एक झोपड़ी है वह ले लीजिए, और मेरे पास रक्खा क्या है। विप्र - मुझे बेल-बधिया लेकर क्या करना है। मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है। शंकर-और क्या है महाराज ! १२१)] निकले। 3
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