पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१८४

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5 भूत १८५ भैया थे । वह पुरुषों के स्वभाव से अनभिज्ञ थी। नारी-चरित्र में अवस्था के साथ मातृत्व का भाव दृढ होता जाता है। यहां तक कि एक समय ऐसा श्राता है, जब नारी की दृष्टि में युवकमात्र पुत्र तुल्य हो जाते हैं । उसके मन में विषय-वासना का लेश भी नहीं रह जाता। किंतु पुरुपों में यह अवस्था कभी नहीं आती। उनकी कामेंद्रियाँ क्रिया-हीन भले ही हो जाये, पर विषय-वासना सभवतः और भी बलवती हो जाती है। पुरुष वासनामों से कभी मुक्त नहीं हो पाता , बल्कि ज्यों ज्यों अवस्था ढलती है, त्यों-त्यों, ग्रीष्म ऋतु के अतिम काल की भांति, उसकी वासना की गरमी प्रचड होती जाती है। वह तृप्ति के लिए नीच साधनों का सहारा लेने को भी प्रस्तुन हो जाता है । जवानी में मनुष्य इतना नहीं गिरता। उसके चरित्र में गर्व की मात्रा अधिक रहती है, जो नीच साधनों से घृणा करती है । वह किसी के घर मे घुसने के लिए ज़बरदस्ती कर सकता है, किंतु परनाले के रास्ते नहीं जा सकता। पडितजी ने बिन्नी को सतृष्ण नेत्रों से देखा, और फिर अपनी इस उच्छ खलता पर लज्जित होकर अाखे नीची कर ली। दिन्नी इसका कुछ मतलब न समझ सकी। पडितजी बोले--तुम्हें देखकर मुझे मगला की उस समय की याद आ रही है-जब वह विवाह के समय यहाँ आई थी। बिलकुल ऐसी ही सूरत थी--यही गोरा रग, यही प्रसन्न मुख, यही कोमल गात, ये ही लजीली आँखे । वह चित्र अभी तक मेरे हृदय-पट पर खिंचा हुआ है, कभी नहीं मिट सकता। ईश्वर ने तुम्हारे रूप में मेरी मगला मुझे फिर दे दी। विनो-आपके लिए क्या जलपान लाऊँ ? प डित--ले अाना, अभी बैठो, मैं बहुत दुखी हूँ। तुमने मेरे शोक को भुला दिया है। वास्तव में तुमने मुझे जिला लिया, नहीं तो मुझे आशा न थी कि मगला के पाछे मैं जीवित रहूँगा। तुमने मुझे प्राणदान दिया। नहीं जानता, तुम्हारे चले जाने पर मेरी क्या दशा होगी। विन्नी-कहाँ चले जाने के बाद ? मैं तो कहीं नहीं जा रही हूँ। पडत-क्यों तुम्हारे विवाह की तिथि पा रही है। चली ही जानोगी।