पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१७२

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मृतक भोज '१७३ सुशीला-तुम्हें मुझसे ऐसी बाते करते लाज नहीं आती । नाम के लिए 'घर खोया, सपत्ति खोई ; पर कन्या कुएँ मे नहीं डुबा सकती। झाबरमल-तो मेरा केराया दे दे । सुशीला-अभी मेरे पास रुपये नहीं है। झाबरमल ने भीतर घुसकर गृहस्थी की एक-एक वस्तु निकालकर गली मे फेंक दी । घड़ा फूट गया, मटके टूट गये । सदूक के कपड़े बिखर गये। सुशीला तटस्थ खड़ी अपने अदिन की यह क्रूर क्रीड़ा देखती रही। घर का यों विध्वस करके झाबरमल ने घर में ताला डाल दिया और अदालत से रुपये वसूल करने की धमकी देकर चले गये। बड़ो के पास धन होता है, छोटों के पास हृदय होता है । धन से बड़े- बड़े ब्यापार होते हैं, बड़े बड़े महल बनते हैं, नौकर-चाकर होते हैं, सवारी- शिकारी होती है , हृदय से समवेदना होती है, आँसू निकलते हैं । उसी मकान से मिली हुई एक साग-भाजी बेचनेवाली खटकिन की दुकान थी। वृद्धा, विधवा, निपूती स्त्री थी, बाहर से आग, भीतर से पानी । झाबर- मल को सैकड़ों सुनाई और सुशीला की एक-एक चीज़ उठाकर अपने घर में ले गई । मेरे घर में रहो बहू । मुसैवत मे आ गई, नहीं तो उसकी मूछे उखाड लेती । मौत सिर पर नाच रही है, आगे नाथ न पीछे पगहा ! और धन के पीछे मरा जाता है। जाने छाती पर लादकर ले जायगा । तुम चलो मेरे घर मे रहो । मेरे यहां किसी बात का खटका नहीं। बस मैं अकेली हूँ। 'एक टुकड़ा मुझे भी दे देना। सुशीला ने डरते डरते कहा-माता, मेरे पास सेर भर आटे के सिवा और कुछ नहीं है । मैं तुम्हें केराया कहाँ से दूंगी। बुढ़िया ने कहा-मैं झाबरमल नहीं हूँ बहू, न कुबेरदास हूँ। मैं तो समझती हूँ, ज़िदगी में सुख भी है, दुःख भी है । सुख में इतराश्रो मत, दुःख में घबड़ाश्रो मत । तुम्हीं से चार पैसे कमाकर अपना पेट पालती हूँ। तुम्हें उ र दिन भी देखा था, जब तुम महल में रहती थीं, और आज भी देख रही हूँ, जब तुम अनाथ हो । जो-मिज़ाज तब था, वही अब है। मेरे धन्य भाग कि ।