पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१५४

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सती न होता था और कल्लू की दशा दिन-दिन बिगैडेती जाती या उपचार की कसर वह अबला अपनी स्नेहमय सेवा से पूरी करती थी। उसपर गृहस्थी चलाने के लिये अब मेहनत-मजूरी भी करनीप इती थी। कल्लू तो अपने किये का फल भोग रहा था। मुलिया अपने कर्तव्य का पालन करने में मरी जा रही थी। अगर कुछ सन्तोष था, तो यह कल्लू' का भ्रम उसकी इस तपस्या से भग होता जाता था। उसे अव विश्वास होने लगा था कि मुलिया अब भी उसी की है। बह अगर किसी तरह अच्छा हो जाता, तो फिर उसे दिल में छिपाकर रखता और उसकी पूजा करता । प्रतःकाल था। मुलिया ने कल्लू का हाथ मुंह धुलाकर दवा पिलाई और खड़ी पखा डुला रही थी कि कल्लू ने श्रासू भरी आँखों से देखकर कहा-मुलिया, मैंने उस जन्म मे कोई भारी तप किया था कि तुम मुझे मिल- गई । तुम्हारी जगह अगर मुझे दुनिया का राज मिले तो न । मुलिया ने दोनों हाथों से उसका मुँह बंद कर दिया और बोली-इस तरह की बाते करोगे, तो मैं रोने लगूंगी। मेरे धन्य भाग कि तुम जैसा स्वामी मिला। यह कहते हुए उसने दोनों हाथ पति के गले में डाल दिये और लिपट गई । फिर बोली-भगवान ने मुझे मेरे पापों का टड दिया है कल्लू ने उत्सुकता से पूछा- सच कह दो मूला, राजा मे और तुममें क्या मामला था। मुलिया ने विस्मित होकर कहा- मेरे और उसके बीच कोई और मामला हुश्रा हो, तो भगवान मेरी दुर्गत करे। उसने मुझे चुदरी दी थी। वह मैंने ले ली थी। फिर मैंने उसे आग मे जला दिया। तबसे मैं उससे नहीं बोली। कल्लू ने ठडी साँस खींचकर कहा-मैंने कुछ और ही समझ रखा था। न जाने मेरी मति कहाँ हर गई थी। तुम्हें पाप लगाकर मैं आप पाप में फंस गया और उसका फल भोग रहा हूँ। उसने रो-रोकर अपने दुष्कृत्यों का परदा खोलना शुरू किया और मुलिया आँसू की लड़िया बहाकर सुनने लगी। अगर पति की चिता न होती, तो उसने विष खा लिया होता