पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/१३

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११२ मानसरावर आप यहाँ एकांत-सेवन कर रहे हैं। इस उजाड गांव में आपका जी कैसे लगता है। इतनी ही अवस्था मे श्रापने वानप्रस्थ ले लिया ? मैं नहीं कह सकता कि सूर्यप्रकाश की उन्नति देखकर मुझे कितना आश्चर्य- मय आनद हुआ | अगर वह मेरा पुत्र होता, तो भी इससे अधिक अानद न होता । मैं उसे अपने झोपड़े में लाया और अपनी रामकहानी कह सुनाई । सूर्यप्रकाश ने कहा-तो यह कहिए कि आप अपने ही एक भाई के विश्वासघात के शिकार हुए। मेरा अनुभव तो अभी बहुत कम है ; मगर इतने ही दिनो मे मुझे मालूम हो गया है, कि हम लोग अभी अपनी जिम्मे- दारियो को पूरा करना नहीं जानते । मिनिस्टर साहब से भेंट हुई, तो पूलूंगा, कि यही आपका धर्म था ? मैंने जवाब दिया--भाई, उनका दोप नहीं। सभव है, इस दशा में मैं भी वही करता, जो उन्होंने किया। मुझे अपनी स्वार्थलिप्मा की सज़ा मिल गई, और उसके लिए मैं उनका ऋणी हूँ । बनावट नहीं, सत्य कहता हूँ कि यहाँ मृझे जो शाति है, वह और कहीं न थी। इस एकात-जीवन में मुझे जीवन के तत्त्वों का वह ज्ञान हुआ, जो सपत्ति और अधिकार की दौड़ मे किसी तरह संभव न था । इतिहास और भूगोल के पोथे चाटकर और यूरप के विद्यालयों की शरण जाकर भी मैं अपनी ममता को न मिटा सका ; बल्कि यह रोग दिन-दिन और भी असाध्य होता जाता था। आप सीढ़ियों पर पाव रखे बगैर छत की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकते । सम्पत्ति की अट्टालिका तक पहुंचने मे दूसरों की जिंदगी ही जीनों का काम देती है। श्राप उन्हें कुचल- कर ही लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं । वहाँ सौजन्य और सहानुभूति का स्थान ही नहीं । मुझे ऐसा मालूम होता है कि उस वक्त मैं हिन जतुत्रों से घिरा हुआ था और मेरी सारी शक्तियां अपनी आत्मरक्षा मे ही लगी रहती थीं। यहाँ मैं अपने चारों ओर सतोष और सरलता देखता हूँ। मेरे पास जो लोग आते हैं, कोई स्वार्थ लेकर नहीं आते और न मेरी सेवाओं में प्रशंसा या गौरव की लालसा है। यह कहकर मैंने सूर्यप्रकाश के चेहरे की ओर गौर से देखा। कपट मुस- कान की जगह ग्लानि का रंग था। शायद यह दिखाने पाया था कि आप