, . - मानसरोवर न उलझे । वह वचन और कर्म से, विचार और व्यवहार से उसके समुख नारी-जीवन का ऊँचा आदर्श रखेगी। श्रद्धा इतनी सरल, इतनी प्रगल्भ, इतनी चतुर थी कि कभी-कभी कोकिला वात्सल्य से गद्गद होकर उसके तलवो को अपने मस्तक से रगड़ती और पश्चात्ताप तथा हर्ष के आँसू बहाती। (२) सोलह वर्ष बीत गये। पहले की भोली भाली श्रद्धा अब एक सगर्व- शांत, लज्जाशील नवयौवना थी,जिसे देखकर आँखे तृप्त हो जाती थीं। विद्या की उपासिका थी ; पर सारे संसार से विमुख । जिनके साथ वह पढ़ती थी, वे उससे बात भी न करना चाहती थीं। मातृ-स्नेह के वायुमडल में पलकर वह घोर अभिमानिनी हो गई थी । वात्सल्य के वायुमडल, सखी-सहेलियों के परित्याग, रात-दिन की घोर पढाई और पुस्तकों के एकातवास से अगर श्रद्धा को अभाव हो पाया, तो आश्चर्य की कौन-सी बात है। उसे किसी से भी बोलने का अधिकार न था। विद्यालय में भले घर की लड़कियां उसके सहवास में अपना अपमान समझती थीं। रास्ते में लोग उँगली उठाकर कहते- 'कोकिला रडी की लड़की है । उसका सिर झुक जाता, कपोल क्षण भर के लिए लाल होकर दूसरे ही क्षण फिर चूने की तरह सफेद हो जाते। श्रद्धा को एकात से प्रम था। विवाह को ईश्वरीय कोप समझती थीं। यदि कोकिला ने कभी उसकी बात चला दी, तो उसके माथे पर बल पड़ जाते, चमकते हुए लाल चेहरे पर कालिमा छा जाती, आँखों से झर झर आँसू बहने लगते ; कोकिला चुप हो जाती। दोनों के जीवन-भादों में विरोध था। कोकिला समाज के देवता की पुजारिन । श्रद्धा को समाज से, ईश्वर से और मनुष्य से घृणा। यदि संसार में उसे कोई वस्तु प्यारी थी, तो वह थीं उसकी पुस्तके । श्रद्धा उन्हीं विद्वानों के ससर्ग मे अपना जीवन व्यतीत करती, जहाँ ऊँच-नीच का भेद नहीं, जाति-पाति का स्थान नहीं-सबके अधिकार समान हैं । श्रद्धा की पूर्ण प्रकृति का परिचय, महाकवि रहीम के एक दोहे के पद से मिल जाता है, प्रम सहित मरिवो भलो, जो विष देय बुलाय।' अगर कोई सप्र म बुलाकर उसे विष दे देता, तो वह नतजानु हो अपने .
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